________________
११८
महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व 'कथापत्राणि' नामक कवि के स्वयं लिखित फुटकर पत्रों की एक प्रति मिली है, जिसके १३७ या १५५ पत्र (दोनों हाशियों पर दो संख्यांक) थे। इसमें ११४ कथाएँ हैं और ग्रन्थपरिमाण करीब ६००० श्लोक का लिखा है। अन्त में कवि ने स्वयं लिखा है कि -
'सं० १६९५ वर्षे चैत्रसुदि पंचमीदिने श्री जालोर-नगरे लिखितं श्री समयसुन्दर उपाध्यायैः । इयं कथाकोशप्रति मयि जीवति मदधीना, पश्चात् पं० हर्षकुशलमुनेः प्रदत्तास्ति। वाच्यामाना चिरं विजयताम्।
महोपाध्याय विनयसागर ने कथाकोश का रचना-काल इस प्रकार बताया है -
ऋतु-वसु-रस-शशि-वर्षे, विनिर्मितो विजयतां चिरं ग्रन्थः।२
उक्त उल्लेख से स्पष्ट होता है कि कथाकोश का निर्माण वि० सं० १६६८ में हुआ था, किन्तु यह कहना कठिन है कि यह संवत् समयसुन्दर द्वारा लिखित कथाकोश का है अथवा संग्रहीत कथाकोश का। १.१५ सारस्वत-व्याकरण-रहस्य
प्रस्तुत कृति 'सारस्वत-व्याकरण' के सूत्रों के आधार पर निर्मित एक सारसंग्रहात्मक रचना है। प्रारम्भ और अन्त के पद्यों से ऐसा प्रकट होता है कि इसमें इन्होंने सम्पूर्ण सारस्वत-व्याकरण के सारभूत तथ्यों को संकलित कर उसके मर्म को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया था, किन्तु उपलब्ध कृति में धातुओं के दस कालों के रूपों (लकारों) का संग्रह ही प्राप्त होता है । धातु-रूपों के सन्दर्भ में ग्रन्थकार ने सकर्मक-अकर्मक आदि भेदों के निरूपण के साथ-साथ कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य एवं भाववाच्य के धातु-रूपों का भी निर्देश किया है। संज्ञावाचक शब्दों के रूपों (सुबन्त) के बारे में कहीं कोई चर्चा नहीं की गई है। मात्र धातु-रूपों के उदाहरण के प्रसंग में कुछ संज्ञा-शब्दों के रूप निर्दिष्ट हैं, किन्तु उनकी व्युत्पत्ति का कोई दिग्दर्शन नहीं है।
सम्भव है कि संज्ञा (नाम) शब्दों से सम्बद्ध रहस्य भी इन्होंने लिखा हो, किन्तु वर्तमान में वह उपलब्ध नहीं है।
इस कृति के रचना-काल, रचना-स्थल इत्यादि के बारे में लेखक ने कोई संकेत नहीं दिया है। इस कृति की हस्तलिखित प्रति श्री जिनहरिविहार, पालीताना (गुजरात) से प्राप्त हुई है। यह अप्रकाशित कृति है। १.१६ फुटकर प्रश्रोत्तर
प्रस्तुत ग्रन्थ अभी तक अप्राप्य है। नाहटा-बन्धुओं को प्रस्तुत ग्रन्थ की सूची का अन्तिम पत्र ही प्राप्त हुआ है, जिसके आधार पर यह ज्ञात होता है कि समयसुन्दर ने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया था। सूची के अन्तिम पत्र से स्पष्ट होता है कि इस ग्रन्थ में २८७ १. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, वक्तव्य, पृष्ठ २७ २. द्रष्टव्य - वही, महोपाध्याय समयसुन्दर, पृष्ठ ५४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org