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समयसुन्दर की रचनाएँ
११७ गणधर गौतम से लेकर अपने समसामयिक गच्छाधिपति पर्यन्त की गुर्वावली प्रदान की है। कवि ने अपनी परम्परा के सभी आचार्यों का जीवन-वृत्त इसमें निबद्ध किया है, जिसका विस्तृत वर्णन इस प्रथम अध्याय के 'गुरु-परम्परा' उपशीर्षक में कर आए हैं। अत: इस परिप्रेक्ष्य में पुनः लिखना पिष्टपेषण ही होगा।
प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रणयन वि० सं० १६९० में खम्भात में हुआ था। ग्रन्थकार स्वयं ग्रन्थान्त में लिखते हैं -
इमं गुर्वावलीग्रन्थं गणि: समयसुन्दरः।
नमोनिधिरसेन्द्वक्दे स्तंभतीर्थपुरेऽकरोत् ।। इस ग्रन्थ की हस्तलिखित पाण्डुलिपि स्व० पूरणचन्द नाहर, कोलकाता के ज्ञान भण्डार में है, जिसकी नकल हमारे पास भी है, लेकिन पाण्डुलिपि का अन्तिम पृष्ठ उपलब्ध न होने के कारण प्रस्तुत ग्रन्थ के परिमाण, रचना-निर्माण के प्रेरक आदि का उल्लेख करना शक्य नहीं है। डा० सत्यनारायण स्वामी ने प्रस्तुत ग्रन्थ की पाण्डुलिपि अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में भी उपलब्ध होने की सूचना दी है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित
१.१४ कथाकोष
प्रस्तुत ग्रन्थ की मूल पाण्डुलिपि हमें किसी भी ग्रन्थालय से उपलब्ध नहीं हुई है। प्राप्त सूचनाओं के आधार पर 'कथाकोश' की ग्रन्थकार द्वारा स्वयं लिखित अपूर्ण प्रति महोपाध्याय विनयसागर के पास उपलब्ध है और पूर्ण प्रति जिनऋद्धिसूरि संग्रह, बीकानेर
वस्तुतः समयसुन्दर के कथाकोश दो प्रकार के मिलते हैं, जिनमें एक मौलिक है, तथा दूसरा संग्रहीत । उपर्युक्त प्रतियाँ इन दोनों कोशों में से किसकी हैं, अज्ञात है। उक्त दोनों कथाकोशों के सम्बन्ध में नाहटा-बन्धु लिखते हैं, महोपाध्याय विनयसागर जी ने कवि का परिचय देते हुए कथाकोश की पूरी प्रति नहीं मिलने का उल्लेख किया है। इसकी कई प्रतियाँ हमें प्राप्त हुई हैं, जिनमें से एक तो कवि को स्वयं लिखित है, पर भिन्न-भिन्न प्रतियों के मिलाने से ऐसा मालूम पड़ता है कि कवि ने दो तरह के कथाकोश बनाये हैं। एक में अन्य विद्वानों के ग्रन्थों से कथाएँ उद्धृत व संग्रहीत की गई हैं और दूसरे में उन्होंने स्वयं बहुत-सी कथाएँ लिखी हैं। इनमें से पहले प्रकार की एक प्रति नाहर जी के संग्रह में मिली है और दूसरी की एक प्रति स्व० जिनऋद्धिसरिजी के संग्रह में से प्राप्त हुई है। इसमें १६७ कथाएँ हैं, पर कवि के अन्य ग्रन्थों की भांति इसमें प्रशस्ति नहीं मिलने से सम्भव है कुछ और भी कथाएँ लिखनी रह गई हों या प्रशस्ति नहीं लिखी गई हो। १. महाकवि समयसुन्दर और उनकी राजस्थानी रचनाएँ, पृष्ठ ६३ २. द्रष्टव्य - सीताराम चौपाई, भूमिका, पृष्ठ ५३
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