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________________ समयसुन्दर की रचनाएँ ९१ हैं, जो उनके द्वारा मान्य आगमों में वर्णित नहीं है। उनका आधार मुख्यतया अन्य आगमिक ग्रन्थ ही हैं। लेखक ने उनकी मान्यताओं का विस्तृत विवरण देकर यह बताने का प्रयास किया है कि जिन आधारों पर वे इन मान्यताओं को स्वीकार करते हैं, उनके आधारभूत ग्रन्थों को अस्वीकार करना उनके लिए उचित नहीं है। अड़तालीसवाँ अधिकार- जिन ग्रन्थों में जिनप्रतिमा-पूजा-फल प्रतिपादित किया गया है, उनका इस अधिकार में सविस्तार उल्लेख किया गया है। तृतीय प्रकाश उनचासवाँ अधिकार- इसमें श्रावकों के लिए प्रतिक्रमण, वन्दन आदि में मुख्यवस्त्रिका के प्रयोग का विधान जिन ग्रन्थों में निर्दिष्ट है, उनके उद्धरण दिये गये हैं। पचासवाँ अधिकार - 'खामणा' के समय द्वितीय वन्दन में 'खामेमि खमासमणों' इस पाठ का उच्चारण करने की तीन परम्पराएँ हैं- एक परम्परा के अनुसार यह पाठ आचार्य के चरणों में सिर रखकर किया जाता है, दूसरी परम्परा में खड़े होकर किया जाता है और तीसरी परम्परानुसार यह पाठ बैठे हुए या अर्धावनतकाय होकर कहा जाता है। ग्रन्थकार ने इन परम्पराओं पर विचार करते हुए तीनों के ही प्राचीन आधारों का संकेत किया है। इक्यावनवाँ अधिकार – प्रस्तुत प्रकरण में श्रमण को आहार-ग्रहणार्थ जिन कुलों में जाने की अनुज्ञा है और जिन कुलों में जाने का निषेध है, उनका सप्रमाण उल्लेख किया गया है। बावनवाँ अधिकार - 'नवकार मन्त्र' की अन्तिम पंक्ति में प्रयुक्त शब्दों को खरतरगच्छ में 'हवइ मंगलं' के रूप में पढ़ा जाता है, जबकि अन्य गच्छों में 'होई मंगलं'। लेखक ने अपनी मान्यता को विस्तृत प्रमाण देकर शास्त्र-सम्मत सिद्ध किया है। तिरेपनवाँ अधिकार - इस प्रकरण में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य वस्तुओं में जिन वस्तुओं का समावेश हो सकता है, उनका सप्रमाण निरूपण किया गया है। चौपनवाँ अधिकार- शृंगाटक (सिंघाड़ा) को कतिपय गच्छों में अभक्ष एवं अनन्तकाय माना जाता है। समयसुन्दर ने इसकी सत्यता और असत्यता पर विचार करते हुए उसे अभक्ष्य तथा अनन्तकाय नहीं माना है। पचपनवाँ अधिकार- प्रस्तुत अधिकार में लवण, हरिताल, मनःशिला, पीप्पली, खजूर, द्राक्षा, हरीतकी, पत्र, पुष्प, फल आदि प्रासुक हैं अथवा नहीं- इस बात पर विचार करते हुए यह सिद्ध किया है कि उपर्यक्त पदार्थ अचित्त होने पर प्रासुक हैं तथा ग्राहक हैं, किन्तु सचित्त होने पर नहीं। छप्पनवाँ अधिकार - इसमें विविध चूर्णों के ग्राह्यत्व और अग्राह्यत्व, सचित्तत्व एवं अचित्तत्व के संबंध में सप्रमाण विचार किया गया है। सत्तावनवाँ अधिकार- प्रस्तुत प्रकरण में प्रासुक अचित्त जल कितने कालान्तर सचित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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