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________________ समयसुन्दर की रचनाएँ उल्लिखित है अथवा नहीं- इस पर विचार करते हुए इसे आगमों में उल्लिखित न मानकर, गुरु-परम्परा प्राप्त ही बताया है। बत्तीसवाँ अधिकार - प्रस्तुत अधिकार में 'पडिलेहन' (प्रतिलेखन) क्रिया में वस्त्रों एवं कम्बल की प्रतिलेखना के नियम बताते हुए प्राभातिक प्रतिलेखन-क्रिया करते समय पहले कम्बल तत्पश्चात् अन्य वस्त्रों का प्रतिलेखन करना तथा संध्याकालिक प्रतिलेखन करते समय पहले वस्त्रों का और बाद में कम्बल का प्रतिलेखन करना शास्त्र-सम्मत बताया गया है। तैंतीसवाँ अधिकार- सामायिक व्रत अंगीकार करते समय व्रतोच्चारण में सुबह बैसणो संदिसाहूँ, वैसणो ठाऊँ' बोलकर बाद में सज्झाय संदिसाहूँ', 'सज्झाय करूँ' इत्यादि सूत्र बोलते हैं, जबकि सायंकाल में पहले 'सज्झाय....', पश्चात् 'वैसणौ .......' के सूत्र बोले जाते हैं। प्रस्तुत अधिकार में लेखक ने इसे शास्त्र-सम्मत कहा है। चौंतीसवाँ अधिकार - इस प्रकरण में ग्रन्थकार ने यह बताया है कि यद्यपि सामयिक व्रत में वस्त्रादि धारण करने का आगमों में उल्लेख नहीं है, तथापि पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों के प्रमाणों के आधार पर वस्त्र धारण किए जाते हैं। पैंतीसवाँ अधिकार- प्रतिक्रमण करते समय प्रतिक्रमण के स्थापनावसर पर खरतरगच्छ में 'वन्दन' निमित्त चार 'खमासमणा' दिये जाते हैं और अन्य गच्छों में पाँच । लेखक ने प्रस्तुत अधिकार में खरतरगच्छ की मान्यता को शास्त्र-सम्मत सिद्ध किया है। छत्तीसवाँ अधिकार - इस प्रकरण में दो कार्तिक मास होने पर प्रथम कार्तिक मास में चातुर्मासिक प्रकरण करने को शास्त्रोक्त सिद्ध किया गया है। सैंतीसवाँ अधिकार - इस अधिकार में कच्चे दूध, दही आदि के साथ द्विदल पदार्थों (चना, मोठ आदि)को ग्रहण करने का आगमिक आधारों पर निषेध किया गया है। ग्रन्थकार यहाँ अपने प्रगुरु एवं गुरु के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए 'प्रथम प्रकाश' समाप्त करता है। द्वितीय प्रकाश अड़तीसवाँ अधिकार- इस अधिकार में जैनागमों की संख्या-निर्धारण पर चर्चा करते हुए यह सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि ११ अंग, १२ उपांग, ११ प्रकीर्णक, ६ छेद, ४ मूल, नन्दी और अनुयोगद्वार – इस प्रकार आगमों की संख्या ४५ है। उनतालीसवाँ अधिकार-जिनप्रतिमा एवं उनकी पूजा का जिन शास्त्रों में उल्लेख उपलब्ध होता है, इनका इस प्रकरण में निर्देश किया गया है। चालीसवाँ अधिकार- इस अधिकार का प्रतिपाद्य विषय है- ज्ञानादि-गुण-रहित जिनप्रतिमा भी साक्षात् जिन के समान ही होती है। ग्रन्थकार ने इसे शास्त्रों के उद्धरणों और प्रमाणों से पुष्ट किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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