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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दिया है जिसमें इन के जन्म से लेकर स्वर्गगमन पर्यंत का समय अंकित किया गया है। इन्होंने भी इस अभिधान राजेन्द्र कोष को संसार के सामने उपस्थित करने में एक अच्छा सहयोग दिया है।
प्रस्तावना __ इस ग्रंथरत्न की प्रस्तावना में ग्रंथ की संपूर्ण रचना की संक्षिप्त माहिती दी गई है। इसमें ग्रंथकर्ताने किन किन खूबियों के साथ इस ग्रंथ का संकलन करके उनके तमाम विषयों पर प्रकाश डाला है इसकी अच्छी समझाइश की है । इस ग्रंथ में जो संकेत (नियम) रक्खे गये हैं उनका संपूर्ण खुलासा किया है।
जिस विषय का जिस सूत्र, नियुक्ति, भाष्य, टीका, चूर्णि या अन्य किसी ग्रंथ में खुलासा आया हो उन सब का अध्ययनादि के संकेत और वे किन किन ग्रंथों में हैं उन ग्रंथों के सांकेतिक नाम दिये हैं।
किसी भी विषय के प्रमाण के लिये जिन जिन ग्रंथों की आवश्यकता हुई है उन तमाम ग्रंथों के नामों की नामावली दी है, इसमें ९७ ग्रंथों के प्रमाण बताये गये हैं ।
प्राकृत शब्दों में जो कहीं कहीं ( ) ऐसे कोष्टक के मध्य में अक्षर दिये गये हैं उनके विषय में थोड़े से नियम दिये हैं और उन तमाम का खुलासा ८ नियमों में किया गया है। दृष्टान्त के रूप में जैसे कहीं-कहीं एक शब्द के अनेक रूप होते हैं परंतु सूत्रों में एक ही रूप का पाठ विशेष आता है इस लिये उसीको मुख्य रख कर रूपान्तर को कोष्टक में रक्खा है। उदाहरण के तौर पर 'अदत्तादाण' या 'अणुभाग' शब्द आया है और उसका रूपान्तर 'अदियादाण' या 'अणुभाव' होता है; किन्तु सूत्र में पाठ 'अदत्तादाण' ही प्रायः विशेष आता है तो उसी को प्रधान रख कर दूसरे को कोष्टक ( ) में रख दिया है।
प्राकृत शब्दों में कहीं-कहीं संस्कृत शब्दों के लिङ्गों से विलक्षण लिङ्ग आता है। उसको कहीं-कहीं प्राकृत मान कर ही लिङ्ग की व्युत्पत्ति की है। जैसे तीसरे भाग के ४३७ पृष्ठ में 'पिट्ठतो वराह ' मूल में है, उस पर टीकाकार लिखते हैं कि 'पृष्ठदेशे वराहः, प्राकृत्वात् नपुंसकलिङ्गता'
इस ग्रंथ के सात भाग हैं। उन सातों भागों में से हर एक भाग में से आये हुए शब्दों में से कुछ शब्दों के उपयोगी विषय दिये गये हैं। जैसे प्रथम भाग में जिन शब्दों पर विवेचन किया गया है उनमें से १३ शब्दों के उपयोगी विषय की बहुत संक्षिप्त जानकारी के लिये खुलासा दिया है। जैसे · अज्जा ' शब्द पर संक्षिप्त विवरण दिया है: