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श्री अभिधान राजेन्द्र कोश और उसके कर्ता । रखते थे । यदि कुछ लिखा भी गया है तो वे केवल ताडपत्रों आदि पर ही पाया जाता है। धीरे २ जनता की स्मरणशक्ति और ज्ञान में कमी होने लगी तो आचार्यों को इसकी चिंता हुई कि यह वस्तु धीरे २ विस्मृत हो जायगी और जनता धर्म से विमुख हो जायगी । जैन धर्म के मूलसूत्रों का अर्थ अति गहन होने से प्रत्येक प्राणी को समझने में कठिनाई का अनुभव होने लगा इस लिये महर्षियोंने इन मूलसूत्रों के ऊपर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका आदि रचनायें शुरू की। देवर्धिगणी क्षमाश्रमण के समय में बहुतसा कंठस्थ ज्ञान विस्मृत होने लगा, शारीरिक स्थिति और स्मरणशक्ति में बहुत दुर्बलता हो गई तब उन्होंने उस समय के सब महात्माओं को एकत्रित करके जिसको जितना याद था उस सब का संकलन कर लिया, वेही ग्रंथ आज जैन समाज में पाये जाते हैं। धीरे २ इन्हीं ग्रंथों का भिन्न रूप में इतना विस्तार हो गया कि इस अल्पायु में जल्दी से जल्दी इसके अंत तक पहुंचना दुर्लभ हो गया। साथ ही जितने भी ग्रंथों की रचना हुई है वे सब एक जगह संग्रहरूप में मिलना भी कठिन हैं। साथ ही कोनसा विषय किस ग्रंथ में है और किस शब्द का किस जगह क्या अर्थ है यह जानना अत्यंत मुश्किल है ।
अर्धमागधी भाषा धीरे २ लुप्त प्रायः हो गई । केवल मात्र इसका कार्यक्षेत्र ग्रंथों तक ही सीमित रह गया, इसको समझनेवाले लोगों का अभाव हो गया । ऐसे विकट समय में श्रीअभिधान राजेन्द्र कोष सरीखे ग्रंथों के निर्माण की परमावश्यकता अनुभव होने लगी। आचार्यप्रवर श्रीराजेन्द्रसूरिजीने दीर्घदृष्टि से सोचकर इस कार्य का प्रारंभ करने की प्रतिज्ञा की। इस ग्रंथराज में इन्होंने जैनागम की मागधी भाषा के शब्दों को अकारादि क्रम से रखकर संस्कृत में उनका अनुवाद, लिङ्ग, व्युत्पत्ति और अर्थ लिखकर फिर उस शब्द पर जो पाठ मूलसूत्र में आया है उसको लिखा है। यदि उसकी कोई प्राचीन टीका उस समय में प्राप्य थी तो उसको देखकर उसके सम्पूर्ण अर्थ को स्पष्ट किया है, साथ ही किन्हीं अन्य ग्रंथों में भी वही विषय आया हो तो उसका भी अच्छी तरह स्पष्टीकरण किया है।
यह ग्रंथ इतना सरल, सरस व विस्तार रूप से लिखा गया है कि इसमें जैन धर्म के सब ही विषयों पर विस्तार रूप से प्रकाश डाला गया है। जिस व्यक्ति को जैनागम संबंधी कोई भी विषय, कोई भी चीज चाहे वह जैन सिद्धान्त से संबंध रखनेवाले स्याद्वाद, ईश्वरवाद, सप्तनय, सप्तभङ्गी, षट् द्रव्य, नवतत्व, भूगोळ, खगोळ आदि हों, चाहे वह साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका के आचार-विचार संबंधी हो, चाहे वह मनुष्य के दैनिक कर्तव्य संबंधी हो, चाहे वह द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग, धर्मकथानुयोग संबंधी हो कहने का तात्पर्य यही है कि कोई भी विषय इस अभिधान राजेन्द्र से अछूता नहीं रहा है।