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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ प्रथम फार्म ही मुद्रितरूप में अवलोकन कर सके, इसके पश्चात् इनके विद्वान् शिष्य स्वर्गीय श्रीभूपेन्द्रररिजी व वर्तमान आचार्य श्रीविजययतीन्द्रसूरिजीने कठिन परिश्रम करके इसके मुद्रण के कार्य को लगभग १७ वर्ष में पूर्ण किया। इस ग्रंथ के मुद्रण में लगभग ४ लाख रुपये व्यय हुए । इस कार्य में समाजने भी तन-मन-धन से पूरा २ सहयोग दिया, जिससे आज संसार को इस ग्रंथ से पूरा २ लाभ मिल रहा है। यह ग्रंथ केवल जैन समाज व भारत तक ही सीमित नहीं रहा, यह तो आज भी पाश्चात्य देशों के बड़े २ ग्रंथालयों की शोभा को द्विगुणित कर रहा हैं और वहां के विद्वानों को पूरा २ लाभ पहुंचा रहा है। यह तो आप इसी स्मारक-ग्रंथ में दी हुई विद्वानों की सम्मतियों से जान सकेंगे।
श्रीअभिधान राजेन्द्र कोष को सियाणा (मारवाड़) में स्व० आचार्यप्रवर श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने तिथि आश्विन शुक्ल द्वितीया विक्रम संवत् १९४६ को लिखना आरंभ किया और सूरत गुजरात में तिथि चैत्र शुक्ल १३ विक्रम संवत् १९६० को परिपूर्ण किया । यह अभिधान राजेन्द्र कोष सात भागों में विभक्त है । यह प्राकृत भाषा का महाविशाल कोष है। इसके मुद्रण के लिये रतलाम ( मालवा ) में श्री जैन प्रभाकर प्रेस के नाम से एक स्वतंत्र मुद्रणालय खोला गया था और वहीं इसके मुद्रण का कार्य समाप्त किया गया ।
___ इस कोष का २२४२९ के चौथाई हिस्से (सुपर रायल साइज) में मुद्रण कार्य हुआ है। इसके प्रथम भाग में पृष्ठ संख्या ८९३, दूसरे भाग में ११८७, तीसरे भाग में १३६३, चौथे भाग में १४१४, पांचवे भाग में १६२७, छटे भाग में १४६५, सातवें भाग में १२५१ इस तरह कुल मिलकर सातों भागों में ९२०० पृष्ठ संख्या है। यह कोष केवल ग्रेट नंबर २ (१६ पाइन्ट) और पैका नंबर १ (१२ पाइन्ट ) के टाईप में छपा हुआ है। प्रत्येक भाग की कीमत २५ रुपये है । प्रथम भाग में ह्रस्वाकारादि शब्द से संकलन किया गया है।
इस अभिधान राजेन्द्र कोष में जैनागम की अर्धमागधी भाषा के शब्दों का संकलन किया है। अर्धमागधी भाषा सामान्य प्राकृत भाषा से कुछ विलक्षण है । यह अर्धमागधी भाषा उस समय की सर्वसाधारण की भाषा थी और राष्ट्र की भी यह भाषा थी जिससे तीर्थंकरोंने अपना उपदेश इसी भाषा में दिया था। उन्हीं उपदेशों को श्रीगौतमादि गणधरोंने द्वादशाङ्गी अथवा एकादशाङ्गी रूप में संदर्भित किया ।जो आज ' मूलसूत्र' के नाम से पुकारे जाते हैं। इन मूलसूत्रों तथा इनके विशद अर्थों का गम्भीर ज्ञान चौदह पूर्वधर, दश पूर्वधर, श्रुतकेवली
आदि महात्माओं को तो कंठस्थ ही होता था, उनको किसी पुस्तकादि की आवश्यक्ता नहीं होती थी। उस समय में कागज, छपाई आदि का आविष्कार नहीं था, नहीं हुवा था । उस समय जनता की स्मरणशक्ति इतनी तीव्र थी कि वे वर्षों तक हरएक बातों को कंठस्थ ही