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श्री अभिधान राजेन्द्र कोश और उसके कर्ता। एक प्रतिमूर्ति थे, उनका जीवन अत्यंत सादगी से परिपूर्ण था, उन्होंने प्राचीन ऋषि मुनियों के त्याग का अनुपम उदाहरण संसार को उसी रूप में दिखाया । मुनि-जीवन में आडम्बर तो किंचित् मात्र भी उनको छू नहीं सका । प्रतिसमय वे तो यही कहते हुए सुनाई पड़ते थे कि यह जो कुछ हो रहा है, महावीर-शासन का कार्य हो रहा है, मैं भगवान महावीर का एक तुच्छ सीपाही हूँ और उनकी यह चपरास अपने गले में डाल कर उनके बतलाये हुए मार्ग का प्रचार करता हूं। उनकी धार्मिक व सामाजिक क्रांति का अवलोकन जगत के जीवों को कराता हूं, जनता को उस मार्ग पर चलने के लिये आग्रह करता हूं, प्रतिसमय अपना व संसार के प्राणियों का आत्मकल्याण करने का मार्ग प्रशस्त करता हूं। यह था श्रीराजेन्द्रसूरि का धार्मिक जीवन ।
धार्मिक जीवन के साथ २ उनका साहित्यिक जीवन भी एक अनुपम और आदर्श था। उन्होंने अपने जीवनकाल में विक्रम संवत् १९०५ से ही ग्रन्थ-निर्माण के कार्य में अपना कदम आगे बढ़ाया जिस समय की उनकी अवस्था केवल २२ वर्ष की ही थी । उन्होंने जैन साहित्यिक जगत में सब से पहिले 'करणकामधेनुसारिणी' ग्रंथ से अपनी रचना प्रारंभ की
और संवत् १९६० में श्रीअभिधान राजेन्द्र कोष से अपनी रचना समाप्त की। ५५ वर्ष तक इन्होंने साहित्य की अविरल गति से सेवा की । इस ५५ वर्ष के जीवन में श्रीराजेन्द्र. सूरिजीने लगभग ६१ ग्रंथो की विविध विषयों में रचना की जिस में भी अभिधान राजेन्द्र कोष की रचना तो एक उन्हें कुदरत की ही देन थी। आजतक संसारमें कोई व्यक्ति इतने बडे ग्रंथ की रचना साढे चौदह वर्ष के जीवन में कर सका हो यह देखने में या सुनने में नहीं आया है। इस ग्रंथरचना के साढे चौदह वर्ष के समय में वे कहीं एक जगह स्थिर रहे हों, या उन्होंने अपने धार्मिक दूसरे कार्य बंद कर दिये हों, यह भी बात नहीं है । उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षण तक निरंतर पैदल विहार किया है, धार्मिक व सामाजिक कार्यों में प्रतिपल उद्यत रहे हैं । अंतिम समयतक प्रतिदिन धार्मिक उपदेशोंके द्वारा जनता का ध्यान त्याग, तपश्चर्या और आत्मकल्याण की ओर केन्द्रित किया है। इतना करते हुए भी उन्होंने अपने ग्रंथरचना का कार्य अविरल गति से चालू रक्खा है। उनका स्वर्गवास ८० वर्ष की आयु में हुआ फिर भी ७६ बर्ष की अवस्था तक उन्होंने ग्रंथरचना के कार्य को नहीं छोड़ा और श्रीअभिधान राजेन्द्र कोष के कार्य को संपूर्ण किया। उनकी उत्कट इच्छा थी कि इस अनुपम ग्रंथ के मुद्रण का कार्य भी उनके जीवनकाल में हो जाय और वे इसको अपने नेत्रों से देख लें, किंतु उनकी यह भावना पूरी न हो सकी । वे केवल श्रीअभिधान राजेन्द्र कोष का