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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ और परिशीलन करने के बाद अनुभव हुआ कि मैं आज भी एक अंधेरे कुए में गोता लगा रहा हूं । जिस मार्ग पर चल रहा हूँ उससे किसी भी दिन अपना आत्मकल्याण नहीं कर सकूँगा । यह तो मेरे जीवन को डूबाने पालः, अधःपतन में ले जानेवाला रास्ता है। इसमें भी एक बड़ी क्रांति की आवश्यकता अनुभव होने लगी । इस जीवन का अनुभव २२ वर्ष पर्यंत किया; किंतु उन्हें कांटे--पत्थर ही नज़र आये। - ४२ वर्ष की अवस्था में पुनः आपके जीवन में एक क्रांति का नया दौर आया। उसी दौरने अपने स्वयं और संसार के जीवों को आत्मकल्याण का मार्गदर्शन दिया। विक्रम संवत् १९२५ के वर्ष में जावरा ( मालवा ) में आपने अपने तमाम परिग्रह का त्याग कर एक शुद्ध मुनि-जीवन में अपना पैर रक्खा । इसी तीसरे शुद्ध मुनिजीवन में आपने धार्मिक, सामाजिक जो सेवायें की हैं उनका जैन समाज चिर ऋणी है। सब से पहिले अपनी आत्मशुद्धि के लिये पर्वतों पर्वतों में, जंगलों जंगलों में, कांटों और पत्थरों में अपने जीवन को त्याग और तपश्चर्या की कसौटी पर कसा, साथ ही साथ जनता को भी पुनरुत्थान का मार्गदर्शन दिया। कई लोगोंने इसका विरोध किया, अट्टहास किया। यहांतक कि इनका आहार-पानी भी बंद किया; किंतु इन्होंने धार्मिक और सामाजिक क्रांति को बंद नहीं किया । जीवन में आगे बढ़ते ही चले और एक दिन ऐसा आया कि सब इनके मंतव्य को समझ कर नतमस्तक हो गये। इन्होंने अपना कार्यक्षेत्र सब से पहिले मालवा, निमाड़, छोटी मारवाड़ व गूजरात को बनाया । इनकी धार्मिक क्रांति की लहर वायु की तरह सब जगह फैल गई। ____ अनेक स्थानों पर जीर्णोद्धार का कार्य कराया, जिन मंदिरो में आशातनायें हो रही थीं उनकी व्यवस्था को ठीक कराया, जिन मंदिरों पर दूसरे लोगोंने अपना आधिपत्य जमा रक्खा था उनको हटाकर जनता को देवदर्शन व आधिपत्य का अपना अधिकार दिलाया। सैंकड़ों नूतन मंदिर बनवाये, हजारों नवीन मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठायें कराई, हजारों मूर्तिय नवीन व प्राचीन मंदिरों में स्थापित कराई, त्याग और तपश्चर्या की ओर जनता का ध्यान केन्द्रित किया । आपकी इस धार्मिक क्रांतिने जैन समाज के जीवन में एक नई स्फूर्ति पैदा कर दी । स्वयं को भी प्रतिदिन त्याग और तपश्चर्या के आदर्श मार्ग पर अग्रसर करते रहे जिससे जनता के हृदय पर आपकी एक अमिट छाप पडती रही। जिन्होंने श्रीराजेन्द्रसूरिजीको स्वयं देखा है और आज भी जीवित हैं वे खुद उनकी त्याग-तपश्चर्या की भूरि २ प्रशंसा करते हैं । सहसा उनके मुख से यही निकलता है कि श्री राजेन्द्रसूरिजी त्याग और तपश्चर्या की
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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