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________________ साहित्य जीवन की अंतिम साधना । ७२७ जायगी। अपने प्रत्येक जीवन में इस प्रकार आत्म-कल्याण में निरत व्यक्ति लोककल्याण भी अधिक से अधिक कर सकता है । आत्मकल्याण में संलग्न व्यक्ति के चारों ओर का वातावरण लोकसाधना के जितना अनुकूल होगा उतना दूसरों के चारों ओर का नहीं हो सकेगा। इसलिए जो व्यक्ति संथारा अथवा संल्लेखना की साधना में अपने को लगाकर, निराहार रहकर, सब विषय-वासनाओं का परित्याग कर मृत्यु का ग्रहण करता है वह निश्चय ही इच्छापूर्वक समाधि-मरण की स्थिति प्राप्त करता है । इस प्रकार जैन धर्म की मृत्यु सम्बन्धी व्यवस्था भी कितनी श्रेष्ठ, कितनी पवित्र और कितनी ऊंची है ? उसके अनुसार अपनी मृत्यु को भी मनुष्य अपने लिए वरदान बना सकता है और अपने जीवन में आत्मकल्याण करता हुआ अपनी मृत्यु को भी आत्मकल्याण का साधन बना लेता है । यही जैन धर्म की व्यावहारिकता है। यही उसका सौन्दर्य और शोभा है । जीवन की अंतिम साधना भी मनुष्य को उतना ही ऊंचा उठा सकती है जितना कि जीवनभर कीगई साधना । वस्तुतः साधना का कोई अंत नहीं वह जिस रूप में जितनी भी की जाय उतनी ही कम है। इसलिए मृत्यु के क्षणों का भी साधना में बीतना मानवकल्याण के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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