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________________ ७२६ भीमद् विजयराजेन्द्रसरि-स्मारक-प्रय हिन्दी जैन व्यक्ति अपनी दृष्टि को सम्पूर्णतया आत्मसाधना म लीन कर के अत्यन्त विशुद्ध एवं निालप्त भावना से प्राप्त की गई मृत्यु के बाद पुनर्जन्म प्राप्त करनेवाला वह मानव कितना पवित्र होगा । इसकी थोड़ी कल्पना तो कीजिए । आत्मा के अजर, अमर और अविनाशी होने में जो विश्वास अथवा श्रद्धा होनी चाहिए वह उसी व्यक्ति में पैदा होनी सम्भव है जो मृत्यु से भयभीत नहीं होता और उससे भयभीत न होना ही उस पर विजय प्राप्त करना है । ऐसे मृत्युंजय व्यक्ति ही संल्लेखना अथवा संथारा की साधना के अधिकारी हैं। उनको ही उसका अमृत लाभ मिलना संभव है । वे अपने दूसरे जन्म में इस जन्म से भी कई अधिक लोककल्याण का काम कर सकते हैं। इसलिए वे अपना ही भला नहीं करते दूसरों को भी इस प्रकार अपनी मृत्यु से लाभान्वित करते हैं । संसारका सबसे बड़ा लाभ इसी में है कि उसमें पाप की कमी की जाय । राग-द्वेष और मोह-माया को कम किया जाय । इसी प्रकार धर्म की प्रतिष्ठा होनी सम्भव है। पैदा होनेवाला हर प्राणी अंत में मरता ही है । मृत्यु की निश्चित दुर्घटना से कोई बच नहीं सकता । अवश्यम्भावी को टालने से बड़ी कोई दूसरी मूर्खता नहीं हो सकती। इसलिए संथारा अथवा संल्लेखना का लक्ष्य मृत्यु को टालना नहीं है । उसका वास्तविक लक्ष्य मृत्यु को उस रूप में स्वीकार करना है जिससे वह एक अभिशाप न रहकर वरदान बन जाय । मृत्यु को वरदान बना देना मानव का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है । संथारा अथवा संल्लेखना की साधना इसी पुरुषार्थ की सूचक है। इस साधना का अनुष्ठान करनेवाला मृत्यु का ग्रहण स्वेच्छा से करता है । उससे भय मानकर वह घबराता नहीं और डरता भी नहीं। युद्ध के मैदान में क्षत्री भी स्वेच्छा से मृत्यु का ग्रहण करता है। परन्तु; उसका मार्ग हिंसापरक होने से अहिंसा की कसोटी पर पूरा नहीं उतरता । जितना पुण्य उसमें है वह उसको अवश्य प्राप्त होता है, परन्तु वह सामान्य नियम नहीं बन सकता । यदि हर कोई लड़ाई के ही मैदान में मरना चाहेगा तो विश्व में न तो कभी युद्धों की समाप्ति होगी और न शांति ही स्थापित हो सकेगी। ___एक और दृष्टि से भी विचार किया जाना चाहिए। गीता में यह कहा गया है कि निराहार से मनुष्य की समस्त विषय-वासनाओं का अंत हो जाता है। अंतसमय में मनुष्य इन विषयवासनाओं से जितना भी निर्लिप्त हो सके उतना ही श्रेयस्कर है। उसका लाभ उसको इस जन्म में इस रूप में मिलेगा कि वह अत्यन्त सुखपूर्वक अपने देह का परित्याग कर मृत्यु को सुखपूर्वक स्वीकार कर सकेगा और दूसरे जन्म में उसका लाभ उसको उस रूप में मिलेगा कि उसके लिए मानव-जीवन की पुनः प्राप्ति बहुत सुलभ हो
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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