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________________ साहित्य जीवन की अंतिम साधना । ७२५ का लाभ उसको दूसरे जन्म में भी प्राप्त होगा। संल्लेखना अथवा संथारा साधना का यही व्यावहारिक रूप है । मृत्यु सबसे अधिक भयावनी अथवा डरावनी है। मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी भी उससे भय खाते हैं । उसको टालने के लिए कौनसे प्रयत्न नहीं किए जाते ! अंतिम क्षण तक डाक्टरों अथवा वैद्यों का उपचार चलता रहता है। दो मिनट भी अधिक जीने के लिए मनुष्य लालायित रहता है। इस भय अथवा लालसा के साथ मरनेवाला व्यक्ति मानव-जीवन के समस्त पुरुषार्थ को और समस्त सद्गुणों को खो देता है । उन को खोनेवाला मृत्यु के बाद दूसरे जन्म में फिर से मानव योनि प्राप्त करने का अधिकारी कैसे रह सकता है ? श्री कृष्णने गीता में कहा है कि "थोड़े से भी धर्म का पालन मानव को बड़े से बड़े पाप से बचा सकता है।” परन्तु मानव मानवीय धर्म का मृत्यु के समय सर्वथा परित्याग कर के केवल पाप का अधिकारी रह कर दूसरे जन्म में पुण्यमय पुनीत मानवजीवन प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकता। जिस स्वधर्म में रहते हुए मृत्यु को श्रेष्ठतम बताया गया है और स्वधर्म का परित्याग कर पर धर्म का अपनाना भय का कारण बताया गया है उसका परित्याग करनेवाला भानव फिर दुबारा मानव जीवन की प्राप्ति की आशा नहीं कर सकता। गीता में अत्यन्त स्पष्ट शब्दो में यह कहा गया है कि 'मृत्यु के समय की भावना के अनुरूप ही मनुष्य को दूसरा जन्म प्राप्त होता है । इस अवसर पर स्वधर्म अर्थात् मानव धर्म का परित्याग करनेवाला मानव मृत्यु के बाद फिर से मानव रूप ग्रहण नहीं कर सकता । " मेरी दृष्टि में जैन धर्म की संल्लेखना अथवा संथारा की अन्तिम जीवनसाधना का यही व्यावहारिक प्रयोजन है। जीवन से निराश होकर खाना-पीना छोड़ना और किसी भी प्रकार जीवन का अंत कर देना विशुद्ध आत्मघात है, उसको संथारा अथवा संल्लेखना नहीं कहा जा सकता। वैसे तो अनेक अवस्थाओं में आत्मघात को भी पाप नहीं माना गया है। पश्चिम के अनेक सभ्य देशों में भी स्वेच्छापूर्वक स्वीकार की गई मृत्यु आत्मघात नहीं मानी जाती और उस पर वे कानून लागू नहीं होते जो आत्महत्या को अवैध ठहराने के लिए बनाए गए हैं । जापान में " हाराकारी" को आत्म-हत्या सरीखा हीन कृत्य नहीं माना जाता । अपमानभरे जीवन से मृत्यु को कई अधिक श्रेष्ठ बताया गया है । मरण समाधि अथवा जीवन समाधि की व्यवस्था हिन्दू धर्म में भी विद्यमान है । परन्तु जैन धर्म की संल्लेखना अथवा संथारा की साधना इन सबसे कई अधिक ऊंची है। उनमें संसार से ऊबने, तंग आने अथवा निराश होने के लिए कोई स्थान या अवसर नहीं हैं। जीवन के समस्त कषाय का परित्याग कर के शरीर के राग-द्वेष तथा मोह-माया से सर्वथा निर्लिप्त होकर जो
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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