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________________ ७२४ ___ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ हिन्दी उन प्रकार मानव की मूर्खता के कारण धर्म को जो हानि हुई है उसके लिए धर्म दोषित नहीं है । जैनधर्म को भी मानव की सम्प्रदायबुद्धि के कारण बहुत हानि उठानी पड़ी है । आज का जैन समाज और जैन धर्म सम्प्रदायगत और जातिगत कितने ही भेदों में बंट गया है और उन में विद्यमान पारस्परिक द्वेष भी चरम सीमा को पहुंच गया है। फिर भी जैन धर्म की जीवन की व्यावहारिक व्यवस्था अस्तव्यस्त नहीं हुई। वह अपनी उस अवस्था के ही बल पर भारत में विद्यमान रह सका है। नहीं तो बौद्ध धर्म की जो अवस्था हमारे देश में हुई वह ही जैनधर्म की भी हो सकती थी। किन्तु वैसा नहीं हुआ। जैन धर्म को अपनी इस व्यवस्था के ही कारण अटूट विश्वास का धर्म कहा जा सकता है। लगभग १५-२० वर्ष पहले की घटना है, इन्दोर के सर सेठ हुकमचन्दजी साहब का स्वास्थ्य बहुत गिर गया था। बम्बई में उनका औषधोपचार चल रहा था। सारे ही जैन समाज में उनके लिए गहरी चिन्ता पैदा हो गई थी। स्थान-स्थान पर उनके स्वास्थ्य लाभ के लिए व्रत, पूजा-पाठ एवं अन्य धार्मिक विधिविधान किए गए थे। महावीर प्रभु से उनके दीर्घ जीवन के लिए प्रार्थना की गई थीं। तब उन्होने बड़े विश्वास के साथ यह कहा था कि मैं बीमारी के बिस्तर पर कुत्ते की मौत नहीं मर सकता । मेरा तो इच्छापूर्वक समाधि मरण ही होगा अर्थात् जब मैं चाहूंगा तभी मेरी मृत्यु होगी । सर सेठ हुकमचंद जगतप्रसिद्ध सटोरिए थे और धनकुबेर रहे हैं। तब वे दुनियादारी में बुरी तरह फंसे हुए थे। मैं उनके इन आत्मविश्वाल पर चकित रह गया और मेरे हृदय में एकाएक यह भावना पैदा हुई कि जैन धर्म की जो व्यवस्था सर सेठ साहब सरीखे संसारी व्यक्ति में ऐसा आत्म विश्वास पैदा कर सकती है, उसमें कुछ न कुछ खूबी अवश्य ही होनी चाहिए। उसी समय जैन धर्म के प्रति मेरा कुछ झुकाव हुआ और मैंने उसको जानने व समझने का जितना प्रयत्न किया उस में मेरी श्रद्धा उतनी ही बढती चली गई। मैंने अनुभव किया कि जैन धर्म विशुद्ध रूप में जीवन के व्यवहार, आशा और विश्वास का धर्म हैं। जिस व्यवस्था के अनुसार मनुष्य इसी जन्म में नर से नारायण बन सकता है, उस से बड़ी व्यवस्था और क्या हो सकती है ! जैन साधु अथवा यति की कठोर साधना और अपरिग्रह देखकर स्वतः ही उसके सम्मुख श्रद्धा से मस्तिष्क झुक जाता है । व्यक्तिपूजा की भावना दोषयुक्त हो सकती है; परन्तु संलार के समस्त व्यवहार से निर्लिप्त अथवा मुक्त व्यक्ति को मानव के लिए आदर्श मानने में क्या दोष हो सकता है ? जीवन के व्यवहार में महाव्रतों का पालन करते हुए और अणुव्रतों का पालन करते हुए श्रावक, क्षुल्लक अथवा ऐलक यदि मृत्यु को भी साधना मान लेता है तो निश्चय ही उस
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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