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________________ ७२२ भीमद् विजयराजेन्द्ररि-स्मारक-ग्रंथ हिन्दी जैन विजयजीने भारतीय विद्या में प्रकाशित किये हैं। आबूरास, जिनपतिसूरि धवलगीत आदि को मैंने 'ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह' और 'राजस्थानी ' में प्रकाशित कर दिये हैं। इस शताब्दी की अन्य रचनाएं जम्बूस्वामी चरित, रेवंतगिरिरास 'प्राचीन गुर्जर काव्यसंग्रह' में प्रकाशित हैं । 'चन्दनबालारास ', ' नेमिरास', 'जिनधर्मसूरि बारह नावउ' आदि को भी राजस्थान भारती-हिन्दी अनुशीलन आदि पत्रों में प्रकाशित कर दिया हैं । १४ वीं शताब्दी के तो कई सुन्दर काव्य ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह' 'प्राचीन गुर्जर काव्यसंग्रह, 'ऐतिहासिकराससंचय' आदि कई ग्रंथों में प्रकाशित हो ही चुके हैं । इसके पश्चात् क्रमशः रचनायें बढ़ती चली जाती हैं। यद्यपि १६ वीं शताब्दी में कुछ मंदता नजर आती है, उसका प्रधान कारण तत्कालीन राज्य-विप्लव आदि हैं। १७ वीं शताब्दी में दूने-चौगुने वेग के साथ राजस्थानी जैन साहित्य फला-फूला नजर आता है। यह समय राजस्थानी जैन साहित्य का सर्वोन्नत काल है । १८ वीं शताब्दी में भी क्रम जारी रहता है । १९ वीं में कुछ शिथिलता आती है और २० वीं में तो वह और अधिक बढ़ जाती है । अतः इसे अवनत काल कहना चाहिये । अब तो राजस्थान में हिंदी भाषा का प्रचार व प्रभाव दिनोदिन बढ़ रहा है और प्रान्त निवासियों की राजस्थानी भाषा के प्रति बड़ी उपेक्षा देख कर बहुत ही खेद होता है। सब प्रांतों की अपनी-अपनी भाषा है और वे दिनोदिन समृद्ध होने जा रही है। केवल राजस्थानी ही का यह दुर्भाग्य है कि वह अपनी समृद्धिशाली और गौरवपूर्ण अतीत से अपदस्थ होती जा रही है। प्रान्तीय कर्णधारों को उसकी सुधि लेनी चाहिये ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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