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साहित्य राजस्थानी जैनसाहित्य ।
७२१ को भी बराबर अपनाया। भगवान् महावीर से आज तक भी प्राकृत भाषा में श्वेतांबर विद्वानों द्वारा निरंतर साहित्य निर्माण होता रहा है। प्रथम शताब्दी के लगभग भारत में संस्कृत भाषा का प्रभाव बहुत बढ़ गया, तब से जैन विद्वानों ने भी संस्कृत में बहुत बड़ा साहित्य निर्माण किया है, पर श्वेताम्बर विद्वान् अपनी मूल प्राकृत भाषा को भूले नहीं। जबकि दिगंवर विद्व नौने संस्कृत के प्रभाव के युग से प्राकृत भाषा में साहित्य निर्माण करना कम कर दिया और संस्कृत में विशेष रूप से रचना करने लगे।
राजस्थान के किसी स्थान निर्देश सूचक उल्लेखबाले ग्रंथ का निर्माण ८ वीं शताब्दी में सर्वप्रथम में जो हुआ मिलता है वह ग्रंथ आचार्य हरिभद्रसूरि कृत 'धूर्ताख्यान ' है जो प्राकृत भाषा में है और चित्तौड़ में रचा गया है । इसके पश्चात् ९ वीं शताब्दी में ' कुवलय. नाममाला ' ग्रंथ जालोर में रचा गया। यह प्राकृत भाषा का चम्पू है और प्रसंग-प्रसंग पर अपभ्रंश भाषा के अनेक उद्धरण भी इसमें पाये जाते हैं । अपभ्रंश भाषा के गद्य के उदाहरण इसी एक ग्रंथ में ही मिलते हैं । १० वीं शताब्दी में सिद्धर्षि ने भीनमाल में संस्कृत एवं प्राकृत में उपमितिभवप्रपंचा' कथा और — चन्दकेवली चरित्र' बनाया। इसी समय जयसिंहरिने नागौर में अपने ‘शीलोपदेशमाला' नामक प्राकृत ग्रंथ पर विस्तृत संस्कृत टीका बनाई । ११ वीं शताब्दी से तो राजस्थान में जैनसाहित्य का निर्माण बढ़ता चला गया और अपभ्रंश भाषा में भी स्वतंत्र ग्रंथ रचे जाने लगे। हरिषेणकृत 'धम्मपरीखा ' अपभ्रंश ग्रन्थ सं० १०४४ में मेवाड़ स्थित अचलपुर में रचा गया है । इसी शती के अंत में महाकवि धनपालने ' सत्पुरीय महावीर उत्साह ' नामक अपभ्रंश स्तुति जोधपुर राज्य के साचोर नामक ग्राम में बनाई । १२ वीं शताब्दी में जिनदत्तसूरिजी का अजमेर, विक्रमपुर आदि मरुस्थलों में विशेष रूपसे विहार हुआ। आप के अपभ्रंश ग्रंथत्रय १ चर्चरी, २ उपदेशरसायन, ३ कालस्वरूपकुलक प्रकाशित हो चुके हैं । इसी समय के जिनदत्तसूरिजी के गुणवर्णनात्मक अपभ्रंश पद्य प्राप्त हुए हैं, जिन्हें हमने 'युगप्रधान जिनदत्तसूरि ' के परिशिष्ट में प्रकाशित कर दिये हैं। इसी समय के आचार्य वर्द्धमानमूरिरचित 'वर्द्धमानपारणउ ' नामक अपभ्रंश रचना को मैंने हिंदी अनुशीलन में प्रकाशित की है। राजस्थानी भाषा अपभ्रंश की जेठी बेटी है, उसे अपभ्रंश साहित्य की परम्परा पूर्णरूप से मिली है।
१३ वीं शताब्दी से तो अपभ्रंश के साथ २ तत्कालीन लोकभाषा में भी काफी रचनाएं बनीं जिन में से वज्रसेनसूरि के — भरतेश्वर गाहुबलि घोर' को शोध पत्रिका में प्रकाशित किया जा चुका है। तत्परवर्ती भरतेश्वर-बाहुबलिरास, बुद्धिरास, जीवदयारास तो मुनि जिन
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