________________
७२०
भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ
हिन्दी जैन
का विहार उड़ीसा एवं मथुरा की ओर अधिक हुआ, तब जैन - साहित्य की प्रधान भाषा महाराष्ट्री एवं शौरसेनी प्राकृत रही है । प्राचीन श्वेताम्बर प्राकृत - साहित्य महाराष्ट्री एवं दिगम्बर प्राकृत साहित्य - शौरसेनी में अधिक मिलता है । आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् दक्षिण में भी जैनधर्म का प्रचार बढ़ा और वहां की भाषा तेलगु, तामिल और कन्नड़ी में जैन - विद्वानों ने साहित्य निर्माण करना प्रारंभ किया। इधर प्राकृत भाषा में परिवर्तन होकर जैन भाषा अपभ्रंश हो गई, तो जैन विद्वानोंने उसमें भी जोरों से साहित्य निर्माण करना प्रारंभ किया । ब्राह्मण आदि विद्वानोंने इस भाषा को निम्न कोटि की मान कर उपेक्षा की और वे संस्कृत में ही साहित्य निर्माण करते रहे । बौद्ध सिद्धोंने जिनको संस्कृत का विशेष ज्ञान नहीं था और जनसाधारण से जिनका विशेष संपर्क रहा, उन्होंने भी अपभ्रंश में अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया । पर मुख्यतः अपभ्रंश साहित्य का निर्माण जैन विद्वानों द्वारा ही हुआ । भिन्न-भिन्न स्थानों में रचे गये अपभ्रंश ग्रंथों की भाषा में विशेष अन्तर नहीं होने से यह भाषा सामान्य रूपान्तरों के साथ भारत के बहुत बड़े विभाग की भाषा रही है - सिद्ध होता है । उत्तर भारत की प्रायः समस्त भाषाओं का विकास इसी अपभ्रंश से हुआ है । राजशेखर के पूर्व निर्दिष्ट उल्लेखानुसार मरु एवं उसके निकटवर्ती टक्क और भादानक की भाषा अपभ्रंश प्रधान थी । अतः गुजरात एवं राजस्थान में रहनेवाले जैन विद्वानोंने इसे विशेषरूप से अपनाई - वह स्वाभाविक ही था । जैनधर्म के श्वेताम्बर और दिगम्बर दो प्रधान सम्प्रदाय हैं । इन में से दिगम्बर सम्प्रदायने अपभ्रंश भाषा को पहले और विशेषरूप से अपनाई । उनके अपभ्रंश ग्रन्थ ८ वीं शताब्दी से सं० १७०० तक के उपलब्ध हैं । और बहुत से बड़ेबड़े काव्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । महाकवि स्वयंभू, पुष्पदंत आदि अपभ्रंश कवियों के सिर मौर हो गये हैं । श्वेताम्बर प्राचीन ग्रंथों में अपभ्रंश के उद्धरण तो मिलते हैं पर स्वतंत्र ग्रंथ ११ वीं शती के पहले के प्राप्त नहीं हैं । १२ वीं से १४वीं शताब्दी तक के वेतांबर विद्वानोंने अपभ्रंश भाषा को विशेष रूप से अपनाया प्रतीत होता है । श्वेताम्बर अपभ्रंश ग्रंथों में हरिभद्रसूरि के ' नेमिनाथचरियं' और ' विलासवईकहा ' आदि बड़े काव्य थोड़े हैं। छोटे २ काव्य तो प्रचुर संख्या में पाये जाते हैं । १५ वीं शताब्दी से जबकि अपभ्रंश भाषा जनता के लिये दुर्बोधसी होने लगी, उन्होंने साहित्य निर्माण तत्कालीन जनभाषा प्राचीन राजस्थानी में विशेष रूप में करना प्रारंभ किया । यद्यपि १३ वीं शताब्दी के प्रारंभ से ही उन्होंने प्राचीन राजस्थानी रास आदि ग्रंथ रचने प्रारंभ कर दिये थे । पर १५ वीं के पूर्वार्द्ध तक के ग्रन्थों में अपभ्रंश का विशेष प्रभाव रहा है । ज्यों २ जनता की भाषा बदलती गई त्यों २ राजस्थनी जैन साहित्य की भाषा भी परिवर्तित होती गई । श्वेताम्बर विद्वानों ने अपने आगमों की भाषा प्राकृत
1