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श्रीमत् विजयराजेन्द्रसरि-स्मारक-प्रेय हिन्दी जैन आदि से नामों में भी परिवर्तन होता रहा है । प्राचीन उल्लेखों के अनुसार राजस्थान के उत्तरी भाग का नाम जांगल, पूर्वी का मत्स्य, दक्षिण-पूर्वी शिवि, दक्षिण-मेदपाट वागड़, प्राग्वाट, मालव और गुर्जरत्रा, पश्चिमी भाग का मद, माडवल्ल, त्रवणी और मध्यभाग का अर्बुद और सपादलक्ष आदि नाम थे। डा. वासुदेवशरणजी अग्रवाल के मन्तव्यानुसार साखजनपद और पृथ्वीसिंह महता के कथनानुसार पारियात्रमंडल भी राजस्थान के ही अंग थे। विभिन्न खंडों में विभक्त होने पर भी राजस्थानी भाषा सर्वत्र प्रायः समानरूप से प्रचलित थी। पीछे से ब्रजमण्डल के निकटवर्ती राजस्थान के प्रदेश पर व्रजभाषा का और गुजरात के निकट पर गुजराती भाषा का प्रभाव पड़ा । राजस्थानी जैन साहित्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न खंडों मे साहित्य निर्माण होने पर भी उनकी भाषा मारवाड़ी ही प्रधान थी। अर्थात् राजस्थानीभाषा की साहित्यिक भाषा का रूप प्रायः एक ही सा था, बोली में थोड़ा बहुत अंतर होगा। प्रदेशों के भिन्न-भिन्न नामों के अनुसार साहित्य की भाषा के विविध नाम उपलब्ध नहीं होते । इससे भी राजस्थानी भाषा की एकरूपता सिद्ध हो जाती है।
राजस्थानी भाषा के प्राचीन नाम के संबंध में अन्वेषण करने पर इसका प्रधान नाम प्राचीन उल्लेखों के अनुसार · मरुभाषा' था, क्यों कि मरुप्रदेश ही राजस्थान का सब से बड़ा एवं प्रधान खंड है जिसे अब मारवाड़ और उसकी भाषा को मारवाड़ी कहते हैं ।
__ आज से २५०० वर्ष पूर्व-भगवान् महावीर के समय भारतीय भाषाओं के प्रान्तीय मेद प्रधानतः १८ थे। जैनागम ज्ञातासूत्र, विपाक, औपपातिक, राजप्रश्नीय आदि में राजकुमारों आदि के अध्ययन के प्रसंग में उन्हें १८ देशी भाषा-विशारद बतलाया गया हैं। उस समय की लिपियों की संख्या भी जैनागमों के अनुसार प्रधानतः १८ ही थीं। लिपियों के १८ नामों का विवरण तो प्राप्त है, पर भाषाओं के १८ नाम प्राप्त नहीं हैं । उद्योतनसूरि के कुवलयमाला ग्रन्थ में जिसकी रचना वि. सं. ८३५ में मारवाड़ के जालोर नामक नगर में हुई है, इस ग्रंथ में तत्कालीन १६ देशों के वणिकों के शरीर वर्ण, वेश, प्रकृति और भाषाओं की विशेषता का महत्त्वपूर्ण उल्लेख एक-एक पद्य में पाया जाता है। यद्यपि उसके अंत में १८ देशी भाषाओं एवं खस, पारस, बर्बर आदि देशों का उल्लेख किया है, पर उदाहरण १ गोल, २ मध्यदेश, ३ मगधदेश, ४ अन्तर्वेदी, ५ कीर, ६ टक्क, ७ सिंघ, ८ मरु, ९ गूर्जर, १० लाट, ११ मालव, १२ कर्णाटक, १३ तायिक, १४ कोसल, १५ महाराष्ट्र, १६ आन्ध्र-इन १६ देशों के ही दिये हैं। इनमें राजस्थानी से संबंधित तो मरु एवं गूर्जर हैं और उसके निकटवर्ती लाट एवं मालव हैं। अतः इन चारों प्रदेशों की भाषाओं की विशेषताओं के उद्धरण ही यहां दिये जाते हैं