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साहित्य
राजस्थानी जैनसाहित्य । पहले तक भी राजस्थान के प्रायः प्रत्येक ग्राम में जैन श्रावक, जैनमंदिर थे, और यति ओं का आना-जाना निरंतर होता रहता था । अब बहुत से व्यक्ति अन्य प्रान्तों में जाकर बस गये और बहुत से निकटवर्ती नगरों में रहने लगे हैं, अतः कई गांव खाली हो गये व वहां के मंदिर टूट-फूट गये । राजस्थान में जैनधर्म के प्रचार के संबंध में इतने विस्तार से कहने का आशय यह है कि जैन विद्वान् प्रारंभ से ही लोक भाषा में धर्म प्रचार व साहित्य निर्माण करते रहे हैं और जब कि राजस्थान के ग्राम-ग्राम में जैनधर्म का प्रचार था, तो राजस्थानी भाषा में जैनसाहित्य का विशाल परिमाण में रचा जाना स्वाभाविक ही है। जैन यति, मुनि आदि अपने आवश्यक खानपान एवं धार्मिक कृत्यों से निवृत्त होकर शेष सारा समय अध्ययन, अध्यापन, साहित्य निर्माण और लेखन इत्यादि में बिताते थे। उनका जीवन बहुत संयमित होता है और उनकी सीमित आवश्यकताएं भिक्षा द्वारा सहज ही श्रावकों से पूर्ण हो जाती हैं । इसीलिये वे साहित्य के निर्माण एवं संरक्षण में भारत के किसी भी सम्प्रदाय के प्रचारकों से अधिक सफल हो सके हैं।
___ यहां यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि राजस्थान और गुजरात का ( संलम प्रदेश होने से ) बहुत घनिष्ठ संबंध रहा है और इन दोनों प्रदेशों में जैनधर्म का अधिक प्रचार रहा है, इसीलिये जैन विद्वान् धर्मप्रचारार्थ दोनों प्रान्तों में समान रूप से घूमते रहे हैं । अतः उनकी भाषा में गुजराती का सम्मिश्रण होना स्वाभाविक है । यद्यपि १६ वीं शताब्दी तक तो दोनों प्रान्तों की साहित्यिक भाषा में खास अन्तर नहीं था। राजस्थानी भाषा में साहित्य निर्माण करनेवाले जैन मुनि व विद्वान् राजस्थान के ही जन्मे हुए थे और राजस्थानी ही उनकी मातृभाषा थी। उनके अनुयायी श्रावक लोगों की भी यही भाषा थी, इसलिये उनके उपदेश राजस्थानी भाषा में ही हुआ करते थे। राजस्थान में ही नहीं, राजस्थान से बाहर गये हुए जैनश्रावकों में धर्म-प्रचार करने के लिये जैन मुनि जब सिंघप्रान्त, सी. पी. और बंगाल आदि में जाते तो वहां पर भी उनके अनुयायियों की मातृभाषा राजस्थानी होने के कारण वहां पर भी जैनमुनि व विद्वानोंने जो साहित्य निर्माण किया है, वह राजस्थानी भाषा में ही है । सिंध प्रान्त में तो बहुत से ग्रन्थ राजस्थानी भाषा में रचे गये हैं जो विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। राजस्थान प्रान्त और राजस्थानी भाषा का प्राचीन नाम:
आज हम जिसे राजस्थान प्रान्त के नाम से संबोधन करते हैं, प्राचीन काल में इसका कोई एक ही नाम नहीं था। यह प्रदेश कई खंडों में विभक्त था और उनके भिन्न-भिन्न नाम थे। समय-समय पर उन नामों एवं प्रदेशों में भी शासकों के परिवर्चन