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श्रीमद् विजयराजेन्दरि-स्मारक-प्रय हिन्दी जैन हिंसा के निवार्थ हर्षपुर भी पधारे थे। हर्षपुर अजमेर से ६-७ कोष हाँसोटियो वा हसौटी नामक स्थान होना संभव है । इधर मथुरा में जैनधर्म का बहुत प्रभाव फैला तब जैन श्रमण वहाँ से मत्स्य देश के वैराटनगर आदि से होते हुए राजस्थान में आगे बढ़े हों सम्भव है । विशेष सम्भव चौथी शताब्दी से आठवीं के बीच में ही राजस्थान में जैनधर्म का प्रचार अधिकरूप में हुआ हो। आठवीं शताब्दी में भीनमाल और चितौड़ को जैनधर्म का प्रचार केन्द्र कहा जा सकता है । श्रीमाल की ओर आचार्य शिवचन्दगणि महत्तर चन्द्रभागा नदी के तटवर्ती पवैयानगरी से आये थे। यह कुवलयमाला की प्रशस्ति से स्पष्ट है । जैन श्रावकों की वंशावलियों से विदित होता है कि ८ वीं शताब्दी में भिन्नमालनगरमें शान्तिसूरि आदि आचार्यों ने अनेक क्षत्रियों को जैन धर्म का प्रतिबोध देकर श्रावक बनाये । जिनकी जाति, स्थान के नाम पर श्रीमाली ही प्रसिद्ध हुई । श्रीमाल नगर के पूर्वी भाग के रहनेवाले जैनों की जाति पोरवाड़ (सं० प्राग्वाट) प्रसिद्ध हुई, और श्रीमालनगर के राजा के पुत्र के साथ ओहड़ आदिने जाकर उवेश (सं. उपकेश) वर्तमान ओसियां (मारवाइ) नगर वसाया। वहां के रत्नप्रभसूरि द्वारा प्रतिबोधित नये जैन श्रावक ओसवाल कहलाये । ९ वीं शताब्दी में वनराज चावड़ाने अणहिलपुर-पाटन बसाकर वर्तमान गुजरात राज्य की नींव डाली । तब मीनमाल, चन्द्रावती आदि के जैनकुटुम्ब पाटन के राजाके पास गये । इनमें कइयोंने मंत्री, सेनापति आदि पदों पर कार्य करके गुजरात की समृद्धि में महत्त्वपूर्ण भाग लिया । पोरवाई मंत्री विमळशाह, वस्तुपाल, तेजपाल, आदि उन्हीं में से मुख्य हैं। इससे पूर्व भीनमाल, डीडवाना आदि का प्रदेश गूर्जरों की प्रधानता के कारण ' गूर्जरत्रा' कहलाता था। इसके बाद क्रमशः वर्तमान् गुजरात की समृद्धि बढ़ती गई । इधर जैन श्रावकों के वंश की अतिशय वृद्धि हुई । ओसवाल जाति की ही सैकड़ों नहीं, हजारों गोत्र के रूपमें शाखायें हो गई और उनमें से कइयोंने अपने व्यापारविस्तार के लिये निकटवर्ती अन्य प्रान्तों में प्रस्थान कर दिया । सिंध प्रान्त जैसलमेर के सन्निकट था, अतः उधर के जैन श्रावक सिंघ प्रान्त में काफी फैल गये। इधर १७ वीं शताब्दी में जगत्सेठ के बंगाल में जानेपर उधर भी हजारों कुटुम्बोंने जाकर व्यापार विस्तार किया । इधर यू. पी. और सी. पी. एवं दक्षिण आदि में भी बहुत से जैन कुटुम्ब गये और अपने व्यापार द्वारा उन्नति प्राप्त की । इसी प्रकार जयपुरराज्य के खंडेले स्थान से खंडेलवाल और पालीसे पल्लीवाल आदि जातिये प्रसिद्ध हुई । खंडेलवाल प्रायः दिगंबर हैं। कहने का अर्थ यह है कि भारतभर में जो आज जैनधर्म के अनुयायी लाखों की संख्या में निवास करते हैं उनमें सब से बड़ी संख्या राजस्थान के निवासी जनों की है । इससे राजस्थान में जैनधर्म का प्रचार कितने विस्तृतरूप में हुआ था-सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । कुछ वर्ष