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________________ ६८२ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक -ग्रंथ हिन्दी जैन अध्यायों में विभक्त है । जिस पर १२ वीं शताब्दी के कश्मीरी विद्वान् हर्षटने एक टीका लिखी है और वर्धमानसूरिने वृत्ति तथा श्रीचन्द्रसूरिने वृत्तिटिप्पण लिखा है । नन्दिताढ्यः - इनका नाम प्राकृत में नन्दियडु है जिसका कि टीकाकार के अनुसार नन्दिताढ्य और अवचूरि के अनुसार नन्दितार्थ होता है । इनके ग्रन्थ का नाम गाहालक्षण ( गाथा लक्षण ) है जिसमें गाथा के सभी भेदों के लक्षण और उदाहरण दिये गये हैं । इनके समय का ठीक रूप से निश्चय करना कठिन है, पर इनका अतिप्राचीन आचार्य जैसा नाम देखकर और जैनागमों में विस्तृत रूप से प्रयुक्त तथा प्राचीन छन्दों में से एक 'गाथा' छन्द मात्र के वर्णन में ही इनको सीमित देखकर और जिह तिह कि ( ३१ वीं गाथा ) आदि अपभ्रंश शब्दों के प्रति इनके अवज्ञा के भाव देखकर ऐसा लगता है कि ये बहुत प्राचीन आचार्य थे । इन्होंने अन्य प्राकृत छन्दों का वर्णन, संभव है, इसलिए नहीं किया हो कि इनके युग में अधिकाररूप से स्वीकृत न हो सके थे । अपभ्रंश के प्रति इनके तिरस्कार के भाव से यह द्योतित होता है कि इनके युग में यह भाषा जनप्रिय न हो सकी थी और कम से कम जैन विद्वान् उसे आदर की दृष्टि से नहीं देखते थे । हेमचन्द्र और उनके पीछे प्राकृत भाषा के अनेक जैन छन्दकारों ने इनके ग्रन्थ से कुछ गाथाओं को उद्धृत किया है, पर वहां ग्रन्थकार का नाम नहीं दिया गया । हो सकता है कि ये १२ वीं शताब्दी के बहुत पहले हुए हैं । यद्यपि इस ग्रन्थ में ९६ के लगभग गाथाएं हैं, पर केवल ७५ गाथायें मौलिक मालूम होती हैं । इनमें ही गाथा के लक्षण एवं उदाहरण समाप्त हो जाते हैं। पीछे ( क्षेपक अंश में) अपभ्रंश भाषा के छन्दों का वर्णन मिलता है; परन्तु ग्रन्थ के नाम और ग्रन्थकार के अपभ्रंश भाषा के सम्बन्ध में भावों को देखते हुए यह वर्णन बिल्कुल असंगत लगता है। हो सकता है कि किसी लेखकने उन्हें पीछे से जोड़ दिया हो' । . स्वयम्भू कवि - ये प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के बड़े भारी पण्डित थे । इनके पउमचरिउ, रिट्ठणेमि चरिउ और स्वयम्भू छन्द ये तीन ग्रन्थ मिलते हैं, चौथे पञ्चमीचरिउ का नाम सुना जाता है | ये गृहस्थ थे । इनकी तीन विदुषी पत्नियां थीं। इनके छन्दचूडामणि, विजयशेषित या जयपरिशेष तथा कविराज धवल ये विरुद थे। इनका एक पुत्र त्रिभुवन इन्हीं के समान महाकवि था । ग्रन्थों से इनके व्यक्तित्व का भी पता लगता है कि ये शरीर से बहुत दुबले पतले एवं ऊँचे थे। इनकी नाक चपटी और दन्त विरल थे, पर इनके गोत्रवंश १. प्रो. वेलणकर, ' नन्दिताढ्य का गाथालक्षण भण्डारकर ओ. रि. इन्स्टी. की खोजपत्रिका, १४ वीं जिल्द, भाग १ - २.
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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