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जैनाचार्यों की छन्दशास्त्र के लिये देन ।
जयदेव - जैन छन्दशास्त्रकारों में जयदेव सब से प्राचीन हैं । इनका उल्लेख १०वीं शता० के आसपास के अनेक ग्रन्थों में मिलता है । भट्ट हलायुध ( ई. १० वीं शता० उत्तरार्ध) ने पिङ्गलसूत्रों की टीका लिखते हुए जयदेव की दो मान्यताओं की दो स्थलों पर आलोचना की हैं, वहां इनका केवल श्वेतपट नाम से उल्लेख है । ये श्वेतपट आचार्य कौन थे यह बात वृत्तरत्नाकर के टीकाकार सुल्हण (ई. १२ वीं शता. उत्तरार्ध) से मालूम होती है । उसने हलायुद्ध द्वारा आलोचित मान्यताओं में से एक का उल्लेख करते हुए उनका नाम श्वेतपट जयदेव लिखा है । ये इतने प्रसिद्ध थे कि कन्नड छन्दकार नागवर्म ( ई. ८९० ) ने अपने ग्रन्थ छन्दोम्बुधि में इनका उल्लेख किया है। स्वयम्भू (ई. ७-८ वीं शता.) इन्हें यति के संस्थापक आचार्यों में से एक माना हैं। इनके प्रन्थ की एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति वि. सं. ११८१ जैसलमेर जैन भण्डार से मिली है। पीछे के अनेक जैन, अजैन छन्दग्रन्थों में इनका आदरपूर्वक उल्लेख मिलता है । प्रन्थकार जैन थे इसका प्रमाण उनके ग्रन्थ का मंगलाचरण है जिसमें वर्धमान जिन को नमस्कार किया है। ये ७-८ वीं शताब्दी के पूर्व के थे ऐसा प्रतीत होता है।
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साहित्य
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जयदेवने विषयक्रम के विभाजन में यद्यपि पिङ्गल का अनुकरण किया है पर उनकी रचनाशैली भिन्न है । उन्होंने लौकिक ( वेदेतर ) छन्दों के लक्षण पद्यशैली में इस तरह प्रस्तुत किये हैं कि वे स्वयं उदाहरण का काम देते हैं। इनकी शैली का अनुकरण पीछे के अनेक ग्रन्थकारोंने किया है । जैन होते हुए भी जयदेवने अपने इस ग्रन्थ में सूत्रशैली में तीन अध्यायों से वैदिक छन्दों का निरूपण किया है। एक जैन द्वारा इस निरूपण की क्या आवश्यकता थी ! इस सम्बन्ध में हम अनुमान करते हैं कि जयदेव, संभव है, उस युग में हुए हों जब कि 'संस्कृत' वैदिक धर्मानुयायियों की बपौती समझी जाती थी और उस गतानु. गतिक युग में जो भी व्यक्ति छन्दशास्त्र पर लेखनी चलाना चाहता था उसे अपने ग्रन्थ की विद्वत् समाज से मान्यता प्राप्त करने के लिए वैदिक छन्दों का वर्णन करना आवश्यक था, तथा उनकी अवहेलना करना असंभव था ।
इनका ठीक समय बतलाना कठिन है । यह छन्दकारों द्वारा पिङ्गल के बाद प्रायः इनका उल्लेख करते देखकर और इन ग्रन्थकार द्वारा विषयक्रम और अध्यायों के विभाजन में पिङ्गल का अनुकरण करते देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि ये पिङ्गल से कुछ ही शताब्दियों बाद हुए हैं । प्रो० बेलणकर की धारणा है कि वे या तो ई. ६०० और ९०० के बीच हुए हैं या उससे पहले । उनके गुरु एवं मातापिता के सम्बन्ध में
कुछ भी ज्ञात नहीं । ग्रन्थ ८
२. प्रो. बेलणकर जयदामन् ।
१. पिङ्गल, छन्दःशास्त्रम् ( निर्णयसागर प्रेस ) पृष्ठ ४ और ५५.
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