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________________ साहित्य संत-साहित्य के निर्माण में जैन हिन्दी-कवियों का योगदान । ६७५ जिसके ' मनुवा ' एवं ' साहब ' विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं । अतएव हिन्दी साहित्य के आदि काल से लेकर कम से कम उन्नीसवीं शताब्दी तक के जैन कवियों की रचनाओं पर यदि एक सरसरी दृष्टि भी डाली जाती है तो इसमें संदेह नहीं रह जाता कि उनमें से कई एक की प्रवृत्ति संतों की जैसी पंक्तियां लिखने की ओर अवश्य हो जाती रही है । अपभ्रंश की रचनाओं में तो हम संत कवियों के लिए पथप्रदर्शन का कार्य होता हुआ ही देखते हैं । सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दियों के जैन कवियों की भी हमे कुछ ऐसी रचनाएं मिलती हैं जिन्हें हम संत-साहित्य के अंतर्गत समाविष्ट करने में कभी संकोच नहीं कर सकते । कम से कम प्रसिद्ध कवि बनारसीदास, आनंदघन, भूधरदास एवं द्यानतराय जैसे कुछ जैन कवियों की चुनी हुई रचनाओं को तो हम न केवल उसमें सम्मिलित कर सकते हैं, प्रत्युत उसमें उन्हें एक अच्छा स्थान भी दे सकते हैं। इनके विषय में हमारा यह कह देना कदापि उचित नहीं कि ये संत कबीर जैसे कवियों के आदर्श पर, उनके अनुकरण मात्र में रची गई होंगीं; क्योंकि इनकी अपनी एक परम्परा भी अपभ्रंश की रचनाओं के ही काल से चली आ रही थी और इनके रचयिताओं के लिए किसी अन्य का अनुसरण करना आवश्यक न था । और फिर यदि स्वयं संत कवि ही उपर्युक्त परम्परा द्वारा न्यूनाधिक प्रभावित रहे हों तो वैसे कथन का कोई महत्त्व भी नहीं रह जाता । इसके सिवाय संत नामदेव, कबीरसाहब, रैदास तथा नानक और दादू आदि कवियों की रचनाएं इतनी लोकप्रिय भी रही हैं कि उनकी छाप से वंचित रह जाना कभी जायसी आदि सूफी कवि तथा सूर, तुलसी, मीरा प्रभृति सगुण वैष्णव कवियों के लिए भी असंभव था । संतों एवं जैन कवियों की रचनाओं में केवल उपर्युक्त समानता को देखते हुए हम उन्हें किसी एक ही वर्ग में रख भी नहीं सकते। जैन कवि प्रायः अपनी मान्यता विशेष तथा अपनी पारिभाषिक शब्दावली की ओर भी स्वभावतः आकृष्ट होते रहते हैं और वे अधिक शिक्षित तथा विद्वान् तक भी प्रतीत होते हैं जहां संतों की भावधारा में विविध धर्मों एवं दर्शनों के विचार-स्रोतों का संगम दीख पड़ता है और इनमें से कई की अनगढ़ भाषा एवं अटपटी वर्णन-शैली में किसी निर्दिष्ट नियम का पता नहीं चलता। इसके सिवाय संतों की वानियों में जहां हमें किसी अनिर्वचनीय परमतत्त्व की ओर भी संकेत जान पड़ता है वहां जैन कवियों के लिए वह केवल एक अनुपम आदर्श मात्र ही प्रतीत होता है जिस कारण ये उसके प्रति किसी आराधना का भाव रखते हुए भी दार्शनिक द्वैताद्वैत विचारों के फेर में नहीं पड़ते ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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