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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ
(३)
युगद्रष्टा वरार्य गुरुदेव ।
[शान्तमूर्ति मुनिराजश्री हंसविजय जी-चरणरेणु मुनिश्री कान्तिविजयजी ।]
इतिहास साक्षी पूरता यह, कथन मिथ्या है नहीं । मैं ही नहीं हूँ कह रहा यह-कह रही है सब मही । जब हास जगमें धर्म का होता हुआ देखा गया । मद्धर्म के रक्षार्थ कोई जन्मता पेखा गया ।
यति-वर्ग का आचार जब शासन विरुध बढ़ने लगा। तप-त्याग के संस्थान में दुश्वार जब भरने लगा। यतिवर्य श्रीराजेन्द्रने ललकार दी यतिवंश को । यतिवेश तज स्वीकृत किया वर साधु-पथ अवतंश को ।
शास्त्रोक्त साध्वाचार का था आपने पालन किया । जप-तप, नियम-यम, योग-संयम शुद्धतम धारण किया । बस साधुता में आपके सम साधु कुछ ही साधु थे। स्वरज्ञान, ज्योतिष, योग में तो आप अंतिम साधु थे ।
चरितार्थ चरित्र कर रहे आश्चर्यकारी संस्मरण । वर त्रिस्तुतिक मत जग उठा जनने किया जब अनुकरण । पाखण्ड मिथ्याचार की जड़ हिल गई तत्काल ही। नव चेतना, नव भावना जागृत हुई तत्काल ही।