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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रय
हिन्दी जैन संग्राम हुये । कई बड़े-बड़े पैमानों पर नर-संहार हुआ। कई नवीन राजवंशों की स्थापना हुई। प्राचीन राजवंश जड़ से ही खो गये । इन शताब्दियों में वीररस का प्राधान्य रहा और वीर रस में 'पृथ्वीराज रासो' जैसे जैनेतर खड्गचरित्र-काव्यों की रचनायें हुईं। भारत के प्रत्येक कोण में इन शताब्दियों में तलवार चमक उठी थी; परन्तु आश्चर्य है कि वहां अद्भुत जैन विद्वान्परंपरा अपने उच्चादर्श से तनिक भी विचलित नहीं हुई। वह अपने पहिले के ढंग से ही धर्मप्रधान शान्तरस में अपनी रचनायें करती रहीं। यह आवश्यक है कि अशांति का उनकी रचनाओं की संख्या और प्रगति पर प्रभाव तो अवश्य हुआ; फिर भी जैनेतर साहित्य की अपेक्षा तो जैन साहित्य में इन शताब्दियों में रची गई रचनाओं की संख्था कई गुणी है-इसमें कोई शंका नहीं है । यह जैनधर्म की ही एक मात्र विशेषता है, जो उसके साहित्य में संनिहित है और वह उसके अनुशीलन से ही समझी जा सकती है। जैनधर्म विशुद्धतः धर्म-प्रधानमत है। यह अनुभवगत सत्य पर ही एक मात्र आधारित है। शृङ्गार-अनुमान और कल्पनाओं का इसमें प्रवेश भी अशक्य है । यह अपराधी को अपराध करके नहीं झुकाता । यह ही इसका मौलिक स्वभाव है। यह शान्ति में विश्वास करता है और अशान्त एवं हिंसक उपायों से उसका संस्थापन अथवा पुनर्स्थापन होना नहीं मानता है। विश्व में शान्ति और सुव्यवस्था, देश-देश में सहानुभूति, ज्ञाति-ज्ञाति में प्रेम और मानव-मानव में सौहार्द अगर संस्थापित किया जा सकता है तो केवल विवेक, शान्ति, स्नेह और प्रेम के द्वारा-ये इसकी अद्भुत अथवा अजब मान्यतायें नहीं, लेकिन ये सत्य के उपर आधारित हैं। यही कारण है कि उपरोक्त वीररसप्रधान शताब्दियों में भी जैन विद्वानोंने वीर रस में रचनायें नहीं की । संसार के समस्त जैनेतर साहित्य देश, काल, स्थिति के अनुसार रस बदलते रहे हैं। परन्तु जैन साहित्य की यह बड़ी अद्भुत एवं शाश्वत विशेषता है कि वह सदा धार्मिक, शान्तरसप्रधान और आध्यात्मिक ही रहा।
हिन्दी अपभ्रंश से निकली, वह अपभ्रंश से अत्यधिक प्रभावित है, उसको अपभ्रंश की भारी देन है-इन तथ्यों की प्रतीति करने के लिये भले आज से ५०-५५ वर्ष पूर्व तो सामग्री का अभाव ही था; परन्तु अब तो सामग्री इतनी तो बाहर आ चुकी है कि जिसका अध्ययन करके हम कुछ निश्चय पर पहुंच सकते हैं। हिन्दी वर्ण-माला, हिन्दी-लिपि,हिन्दी-व्याकरण, हिन्दी में प्रयुक्त किये जानेवाले छंद, अलङ्कार, रचनाओं की संज्ञायें व शैली आदि में अपभ्रंशका कितना प्रभाव है, वह हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, आदि ग्रन्थों से स्पष्ट है । इतना सब कहने का हमारा तात्पर्य यह नहीं था कि हिन्दी का निर्माण सम्पूर्णतः और सर्व प्रकार से एक मात्र अपभ्रंशने ही किया है। ऐसा कहना अवैज्ञानिक और अव्यावहारिक रहेगा । खड़ी बोली के हामी मुसलमान शासक, उनके आश्रित कवि और शायरोंने भी हिन्दी