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________________ साहित्य हिन्दी और हिन्दी जैन साहित्य । ६२५ हिन्दी-भाषा के विकाश के अध्ययन के लिये ' अपभ्रंश' का साहित्य बहुपयोगी है; क्यों कि 'अपभ्रंश' में प्राचीन अथवा आदि हिन्दी' कहा जानेवाला स्वरूप यथावत् विद्यमान है और 'अपभ्रंश' में प्राचीन-हिन्दी-गद्य सुरक्षित है। हिन्दी के लिये 'अपभ्रंश' की यह सेवा सुरक्षा की दृष्टि से कम महत्व की नहीं है। उपलब्ध हिन्दी जैन-साहित्य जैनेतर हिन्दी साहित्य से मिलाने बैठेंगे तो वहां थोडा अन्तर काल के निर्धारण में पड़ा हुआ मिलेगा। कारण स्पष्ट है-जैन विद्वान् अपभ्रंश के पंडित थे और अपभ्रंश में उनके उपयोगी धर्मग्रंथ रचे जा चुके थे और जैनेतर हिन्दी विद्वान् अपभ्रंश के न तो पंडित ही थे और नहीं उनके धार्मिक ग्रंथ ही इस में रचित थे; अतः जैनेतर हिन्दी विद्वान् वि० १४ वीं शताब्दी से ही हिन्दी में ठोस रचनायें कर सके। हिन्दी जैन विद्वानों को अपभ्रंश के गाढ़ प्रभाव से मुक्त होने में अधिक समय लगना स्वाभाविक है; अतः हिन्दी जैन-विद्वानों की हिन्दी कही जाने. वाली रचनायें वि० १४ वीं शताब्दी से प्रारंभ नहीं हो कर वि. १६ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रारंभ हुई मिलती हैं अर्थात् हिन्दी जैन विद्वान् विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पूर्णतः अपभ्रंशमुक्त हिन्दी रचना करने लगे। अन्य प्रान्तीय लोक-भाषाओं में भी जैन विद्वानोंने रचनायें की हैं । श्वेताम्बर साधु और आचार्यों की राजस्थान, मालवा, गूर्जर अधिकतर विहार-भूमि रही है। उन्होंने राजस्थानी और गूर्जर भाषाओं में भी इन शताब्दियों में बड़े महत्व के कई ग्रंथ लिखे हैं। राजस्थानी और गूर्जर भाषा अन्य लोक-भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी के अधिक निकट मानी जाती हैं; अतः मरु-गूर्जरी जैन साहित्य भी हिन्दी के लिये एक बहुत बड़ी देन और महत्व की वस्तु है। विक्रमीय ११, १२, १३, १४, १५ और १६ वीं शताब्दियां भारत में उथल-पुथल का समय रही हैं। जिनमें तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दियों का काल तो बड़ा ही कठिन, विषम और संहारक रहा है । इन शताब्दियों में बाहर से महम्मूद गजनवी, गौरी अवलोकन और आदि आततायियों के धन और वैभव के लिये आक्रमण ही नहीं जैनसाहित्य की हुये; वरन् उनके परवर्ती उत्तराधिकारियोंने भारत में राज्य-स्थापनायें विशेषता की। इन शताब्दियों में सच कहा जाय तो उत्तर भारत काश्मीर से विंध्याचल तक और सिन्ध से बिहार-आसाम तक रण-भूमि ही रहा। राजपूत राजाओं में परस्पर फूट थी; अतः वे आक्रमणकारियों के सामने विजयी तो न ठहर सके; परंतु आक्रमणकारियों को सीधे हाथ राज्यों की स्थापना भी नहीं करने दी। दोनों में बड़े २ ७९
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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