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________________ साहित्य हिन्दी और हिन्दी जैन साहित्य । ६२७ के निर्माण में पूरापूरा योग दिया है। संस्कृत भाषाने भी इसके कलेवर को सुन्दर और सुष्टु बनाने के लिये अपने अधिक प्रिय कई शब्दों को भेंट किया है। हिन्दी-काल हिन्दी जैन साहित्य की दृष्टि से यह काल विक्रमीय १६ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से वि. सं. १९ वी पर्यंत माना गया है। हिन्दी का उत्कर्ष रूप इस काल के प्रारंभ में बनने लगता है जो इसके अन्त में आधुनिक रूप में परिवर्चित हुआ है। इस प्रकथन काल के हिन्दी जैन विद्वानों में वि. सं. १५८१ में ' यशोधरचरित्र' के का गौरवदास और प्रसिद्ध 'कृपणचरित्र' के कर्ता कवि ठकरसी, धर्मदास के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । इन तीनों में कवि ठकरसी अग्रगण्य है। कवि ठकरसी के पश्चात् १७वीं शती में तो हिन्दी जैन कवि, लेखक, ग्रंथकार, टीकाकारों की बाढ़सी आ गई और हिन्दी जैन धार्मिक साहित्य के साथ ही अन्य अनेक विषयों में रचनायें और अनुवादग्रंथ लिखे गये। जैन विद्वान्-परम्परा ने इस हिन्दी काल में विविधमुखी और विविध विषयक रचनायें करके हिन्दी जैन साहित्य को विपुल और विविधविषयक बताया। सर्व श्री चौधरी रायमल, नैनसुख, समयसुन्दर, कृष्णदास, रूपचन्द पाण्डे, बनारसीदास, रूपचंद्र(श्वे०), हीरानंद, कविवर भगवतीदास, भद्रसेन, जिनराजसूरि, जटमल नाहर, यति बालचंद्र, हंसराज, उदयराज, आनंदघन, जिनरंगसूरि, उपा० यशोविजय, विनयसागर, हेमसागर, जिनहर्ष, धर्मसिंह, कवि रायचंद, लक्ष्मीवल्लभ, उदयचंद्र (खरतर), जिनसमुद्रसूरि (खरतर ), कवि मान, भैया मगवतीदास, केशव, कवि लालचंद्र, मानकवि (खरतर ), खेतल, विनयचंद्र, कवि रत्नशेखर, समर्थ कवि, दुर्गादास, लक्ष्मीचंद, दीपचंद, गुणविलास, भूधरदास, कनककुशलकुंवरकुशल, दौलतराम कासलीवाल, महोपाध्याय रूपचंद, कवि दास, पं० टोडरमल, देवीदास, महाकवि ज्ञानसार, कविवर बुधजन प्रभृति, अनेक नहीं, सैकड़ों हैं। हिन्दी जैन साहित्य विकास की दृष्टि से तो विक्रमीय १६वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध पर्यंत हमने अपभ्रंश-हिन्दी-काल माना है; परन्तु विषय की दृष्टि से जैसा हिन्दी जैनेतर साहित्य में विक्रमीय चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग से भक्ति-काल का जो प्रारंभ होना माना गया है वैसा हमको कोई काल निर्धारित करने के लिये बाधित नहीं होना पड़ा है, कारण कि जैन साहित्य समयानुसारी नहीं, वरन् शाश्वत धर्मानुसारी ही अधिकतर प्रधान रहता है। हां, रचनाओं में वेग और शैथिल्य देश, काल और स्थिति के ही कारण बढ़ते-घटते अवश्य रहते हैं । चौदहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में उत्तर भारत में सर्वत्र मुस्लिम-राज्य स्थापित हो चुके थे । राजपुत्र राजा या तो उनके आधीन हो चुके थे या अशक्त हो कर शिथिल से
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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