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________________ ६२२ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ हिन्दी जैन लोक-भाषा बननेवाली बोली अथवा भाषा को जैन साहित्य सदा वरदान अथवा अद्भुत देन के रूप में प्राप्त होता आया है। हिन्दी को अपभ्रंश की मारी देन है-इसमें तनिक भी मतविभिन्नता नहीं। अपभ्रंश से जैसे अन्य आधुनिक लोक-भाषायें उद्भूत हुई, उसी प्रकार हिन्दी भी उसीसे बनी और निकली है । बल्कि सच कहें तो हिन्दी अपभ्रंश की प्यारी पुत्री है। इसको, राजस्थानी-गुजराती छोड़ कर, अन्य भाषाओं की अपेक्षा अपभ्रंश से अधिक प्राप्त हुआ है। इस कथन की ठीक-ठीक और सच्ची प्रतीति तो जैन-ज्ञानभण्डारों में अप्रकाशित पड़े हुये अपभ्रंश-साहित्य के प्रकाश में आने पर धीरे-धीरे विदित होगी। फिर भी अभीतक जितना और जो कुछ अपभ्रंश-साहित्य प्रकाश में आ चुका है उसके आधार से भी यह सर्वविदित हो चुका है कि हिन्दी के निर्माण में अपभ्रंश का महत्त्वपूर्ण योग है। स्वर्णकाल को प्राप्त हुई प्रत्येक भाषा ही अपने मध्यकालीन भाग में अपने उदर में कोई अन्य ऐसी भाषा का गर्भधारण कर बढ़ती चलती है कि ज्योंहि वह अपने प्राचीन रूप से उत्तरकाल में वार्धक्यग्रस्त होकर निश्चेष्ट बनने लगती है, मध्यकाल से उसके उदर में पलती हुई वह भाषा जन-साधारण के मुख-मार्ग से निस्सरित होने लगती है और अपनी प्रमुखता स्थापित करती हुई अंत में प्रमुख भाषा का रूप धारण कर लेती है। ____ अपभ्रंश भाषा के स्वर्णयुग के मध्यभाग अर्थात् वि. आठवीं शताब्दी में वि. सं. ७३४ के पीछले वर्षों में महाकवि स्वयंभूने 'हरिवंशपुराण' और पद्मपुराण ' ( रामायण ) की रचना की थी। हिन्दी के वीज-प्रक्षेप करनेवालों में ये ही प्रथम अप० अपभ्रंश-हिन्दी कवि माने गये हैं। इनकी रचना में हिन्दी का बीज देखिये । सीता-[ अग्नि-परीक्षा के समय ] इच्छउँ यदि मम मुख न निहारै । यदि पुनि नयनानन्दर्हि, न समर्पे उ रघुनन्दनहिं ॥ हिन्दी काव्यधारा, पृ. ६९ ( स्वयम्भूकृत रामायण ४९-१५) महाकवि स्वयंम् के पश्चात् विक्रमीय १० वी, ११ वीं एवं १२ वीं शताब्दियों में देवसेन, पुष्पदंत, धनपाल, रामसिंह, श्रीचन्द्र, कनकामर प्रभृति कवि अति प्रसिद्ध हैं, जिन की रचनाओं में हिन्दी का अंकुर सा फूटता हुआ दृष्टिगोचर होता है। पर इनकी भाषा की संज्ञा तो अपभ्रंश ही है: देवसेनने ' दर्शनसार ', ' तत्त्वसार' और · सावयधम्मदोहा' नामक ग्रंथ लिखे हैं। पुष्पदंतने ' महापुराण', 'जसहरचरिउ' एवं 'णायकुमारचरिउ'; धनपालने 'भविसयदत्त.
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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