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________________ ६२१ साहित्य हिन्दी और हिन्दी जैन साहित्य । वर्षों में जैन विद्वान् मुनि जिनविजयजी, आदिनाथ उपाध्याये, डा. हीरालाल, डा० परशुराम वैद्य, पं० लालचंद्र भगवान गांधी, महापंडित राहुल सांकृत्यायन प्रभृति विद्वानोंने अपभ्रंश साहित्य का गंभीर अध्ययन किया । कुछने अनेक अपभ्रंश ग्रंथों का प्रकाशन किया है और इसका हिन्दी साहित्य में विकास के इतिहास पर गहरा प्रभाव ही नहीं पड़ा; वरन् वहां इसके अभाव में जो गड़बड़ हो गई थी वह वहां अब स्पष्ट प्रतिलक्षित होने लगी है । डा. हजारीप्रसाद द्विवेदीने अपने ' हिन्दी साहित्य का आदिकाल ' नामक ग्रंथ में स्पष्ट कहा है, " जब तक इस विशाल उपलब्ध साहित्य को सामने रख कर इस काल के काव्य की परीक्षा नहीं की जाती, तब तक हम इस साहित्यका ठीक-ठीक मर्म उपलब्ध नहीं कर सकते । इधर-उधर के प्रमाणों से कुछ कह देना, कुछ पर कुछ का प्रभाव बतला देना न तो बहुत उचित है और न बहुत हितकर । " यह कहना होगा कि आज अपभ्रंश का साहित्य जो कुछ भी उपलब्ध है वैसा ५०-५५ वर्ष पूर्व प्राप्य नहीं था। तभी तो प्रसिद्ध भाषाशास्त्री जर्मन विद्वान् पेशल को यह अनुभव कर के बहुत ही दुःख हुआ था कि अपभ्रंश का समृद्ध और विपुल साहित्य खो गया है। जैन साहित्य-सेवियों की प्रत्येक युग और प्रत्येक काल में विशेष अथवा साधारण कुछ ऐसी परंपरायें रहती हैं, जो समय की कड़ी से कड़ी मिला कर आगे-आगे बढ़ती चली जाती हैं । जैन साहित्य को समृद्ध बनाने की दृष्टि से, उसको विविधमुखी एवं विविधविषयक करने की दृष्टि से विद्वान्-ग्रंथकार की परंपरा रही है । इस परंपरा का कर्तव्य यही रहता है कि वह आगमों का स्वाध्याय करे, लोक-जीवन का अध्ययन करे, जैनेतर साहित्य का अनुशीलन करे और मौलिक ग्रंथ लिखे, टीकायें बनावे, भाष्य रचे आदि । दूसरी परंपरा है ज्ञान-भण्डार-संस्थापन-परंपरा । इस परंपरा का उद्देश्य समृद्ध जैन साहित्य की रक्षा करने का है । साहित्य की सुरक्षा की दृष्टि से यह ज्ञान -भण्डार की स्थापना करती है और वहां जैन-जनेतर साहित्य प्रतिष्ठित हो कर सुरक्षित रहा है । जैन ज्ञान-भण्डारों का महत्त्व आज सर्वविदित हो चुका है। तीसरी परम्परा है लोक-भाषा अंगीकरण की । जैन विद्वान् अथवा ग्रंथकर्ता जिस युग में जो जन-साधारण की सर्वप्रिय भाषा होती है, उसीमें वह अपना साहित्य रचता है, अपना विचार, उपदेश, संदेश भी उसी के माध्यम के द्वारा लोकसमाज तक पहुंचाता है। इन तीन विशिष्ट परम्पराओं से ही जैन साहित्य प्राकृत और संस्कृत तथा अपभ्रंश में एक-सा समृद्ध, विविध और विपुल मिलता है। जैन अपभ्रंश साहित्य की विपुलता, उसकी समृद्धता एवं उसकी विविध विषयकता को प्रायः सर्व विद्वान् स्वीकार करते हैं। इस पर अधिक विवचन करना यहां समीचीन भी नहीं प्रतीत होता है।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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