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________________ ६२० भीमद् विजयराजेन्द्रसरि-स्मारक-ग्रंथ हिन्दी जैन अपभ्रंश से मराठी; मागधी अपभ्रंश से बङ्गला, बिहारी, आसामी, उड़िया और अर्धमागधी अपभ्रंश से पूर्वी हिन्दी का जन्म हुआ। इस मान्यता में थोड़ी-बहुत मतविभिन्नता भी हो सकती है। परन्तु हमको इस पर अधिक विवेचन यहां नहीं करना है । हमारा प्रकृत विषय 'हिन्दी जैन साहित्य ' है; अतः हम हिन्दी से ही सीधा संबंध रखनेवाले मत एवं विचारों में ही और वह भी स्थानाभाव से मर्यादित कर के ही कहेंगे। हिन्दी जैन साहित्य को हम अपने अध्ययन एवं अनुशीलन के आधार पर तीन भागों में निम्न समयक्रम से विभाजित करते हैं: अपभ्रंश-हिन्दी-वि. १० वीं शताब्दी से वि. १६ वीं के पूर्वार्धपर्यंत । हिन्दी-वि. १६ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से वि. १९ वीं शताब्दीपर्यंत । आधुनिक हिन्दी-वि. २० वीं शताब्दी। अपभ्रंश-हिन्दी काल वि. छठी शताब्दी से १२ वी पर्यंत तो अपभ्रंश का स्वर्णयुग ही रहा और १६ वीं शताब्दी के पूर्वार्धपर्यंत जैन साहित्य में अपभ्रंश प्रभावित रचनायें होती रहीं। डा. हजारी प्रसाद द्विवेदीने अपने 'हिन्दी साहित्य का आदिकाल' इतिहास में हिन्दी प्रकथन का आदिकाल ७ वीं शताब्दी ई० से १४ वीं ई० पर्यंत माना है जो उपयुक्त ही है। क्यों कि वहां तो १५ वीं शताब्दी से ही भक्तिकाल प्रारंभ हो जाता है जिसमें भक्त और प्रेममार्गी कवियों की हिन्दी में ठोस रचनायें होने लग गई थीं । हिन्दी जैन कवियोंने अपनी रचनायें जब कि प्रारंभ की ही थी। हिन्दी जैन साहित्य में भी उसको · हिन्दी का आदिकाल ' अथवा ' प्राचीन हिन्दी-काल ' ही कहा है और समय भी उतना ही माना है, जो अपभ्रंश प्रभावित रचनाओं के प्राचुर्य पर हिन्दी जैन साहित्य की दृष्टि से उतना स्पष्ट और अर्थपूर्ण नहीं है। जितना 'अपभ्रंश-हिन्दी-काल' कहना । __भले हिन्दी साहित्यविशारदोंने अपभ्रंश को ' आदि हिन्दी' अथवा 'प्राचीन हिन्दी ' कहा है; परन्तु अपभ्रंशप्रभावित इस काल को ये नाम देना न स्पष्ट हैं और न अर्थपूर्ण । अपभ्रंश-हिन्दी काल से सीधा अर्थ निकलता है कि अपभ्रंश प्रभावित हिन्दी रचनाओं का काल । _ 'अपभ्रंश' का साहित्य महान् समृद्ध, विपुल, विविध विषयक और विविधमुखी है । अपभ्रंश की प्राञ्जलता इसके महाकाव्यों में देखने को मिलती है। इसके काव्यों में इसकी समृद्धता के दर्शन होते हैं । इसके खण्ड-काव्यों में जीवन के अनेक रूपों की विविध भांति से जो अभिव्यञ्जना हुई है वह बहुत ही रोचक और प्रभावक है । पिछले २०-२५
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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