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साहित्य
हिन्दी और हिन्दी जैन साहित्य |
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' अपभ्रंश ' शब्द का भी एक अद्भुत इतिहास है । पातञ्जलने एक शब्द के कई अपशब्द अथवा अपभ्रंश होना माने हैं अर्थात् वे 'अपभ्रंश' और 'अपशब्द' का प्रयोग पर्यायवत् करते हैं। उन्होंने किसी भाषाविशेष के लिये ' अपभ्रंश ' शब्द का प्रयोग नहीं किया ! प्रसिद्ध वैयाकरणी दण्डीने संस्कृतेतर शब्द को 'अपभ्रंश' कहा है; क्यों कि ' अपभ्रंश ' शब्द तब तक संस्कृतेतर शब्दों के लिये रूढ़ बन चुका था । भरतने इसके विपरीत 'विभ्रष्ट शब्द का प्रयोग किया है । पाणिनीने शब्द और अपशब्द का प्रश्न ही नहीं उठाया । भरत ने विभाषाओं को 'अपभ्रंश' कहा है; जैसे आभीर जाति द्वारा व्यवहृत होनेवाली भाषा 'आभीरोक्ति' । वैयाकरणी दण्डीने ' आभिरादिगिरः ' कहकर ' आभीर' शब्द के साथ में 'आदि' शब्द और लगाया है । इन सब विवादास्पद एवं परस्परविरोधी बातों से स्थानाभाव से इस निबंध में तथ्य पर पहुंचना कठित है कि एक भाषा प्रकृत और दूसरी विकृत कैसे मानी गई; जबकि दूसरी भाषा भी कोई बाहर देश से यहां आ कर उत्पन्न अथवा विकशित नहीं हुई थी । फिर भी इतना स्पष्ट है कि संस्कृतेतर शब्द के लिये तो ' अपभ्रंश ' शब्द रूढ़ ही बन चुका था ।
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जन्म
' अपभ्रंश ' प्राचीन हिन्दी अथवा आदि हिन्दी है; अतः हमारे लिये ' अपभ्रंश ' शब्द पर, अपभ्रंश भाषा की उत्पत्ति पर, उसकी जननी 'पाकृत पर भी कुछ कहना आवश्यक कारण हो जाता है। विक्रम की छट्ठी शताब्दी से विक्रम की लोकभाषाओं का बारहवीं शताब्दी का मध्यवर्ती काल अपभ्रंश भाषा का स्वर्णयुग कहा जाता है जो वि० तेरहवीं शताब्दी में प्रसिद्ध हेमचन्द्र - युग के आस-पास जा कर शिथिल पड़ना प्रारंभ होता है । इन शताब्दियों में ' अपभ्रंश ' भाषा समस्त उत्तर भारत के प्रदेशों में व्याप्त हो चुकी थी और वह उच्च साहित्यिक रूप को प्राप्त कर चुकी थी । परन्तु जैसा उपर वर्णित किया गया है कि भाषा का उच्च स्तर परिष्कृत मस्तिष्कधारी पुरुषों के द्वारा साहित्य में स्वीकृत होता आया है और उसका साधारण स्तर जन-साधारण की बोल-चाल की भाषा का रूप बन कर चलता है । 'अपभ्रंश ' का साधारण स्तर प्रान्त - विभिन्नता के कारण चार मोटे नामों से मिलता है - बरार - खानदेश में प्रयुक्त होनेवाला स्तर ' अपभ्रंश महाराष्ट्री', मथुरा और ब्रजमण्डल में प्रयुक्त होनेवाला ' शौरसेनी', are का 'मागधी' और मगध और शौरसेन - मण्डल के मध्य में प्रयुक्त स्तर ' अर्धमागधी ' । विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में जब ' अपभ्रंश' को भी साहित्य-मरण स्वीकार करने के लिये बाध्य होना पड़ा था; उस समय ही आधुनिक लोक भाषाओं का जन्म हुआ था । नागर अथवा शौरसेनी अपभ्रंश से हिन्दी, गूर्जर, राजस्थानी, पंजाबी भाषायें प्रसूत हुई; महाराष्ट्री