SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 727
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१८ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रय हिन्दी जैन कर छोड़ गये अथवा वह उनकी दृष्टि में ही ठीक-ठीक नहीं आ सका और यह हुआ कि वे जैसे-तैसे आगे तो बढ़े परन्तु अंत में उन्हें भी स्पष्ट भासित हो गया कि वे घोर श्रम उठा कर भी असफल प्रयास ही रहे और सच्चा एवं प्रामाणिक कहा जानेवाला हिन्दी का आदि स्रोत उन्हें नहीं मिल सका यह भी उन्हें ज्ञात हो गया। वेदकालीन भाषा को जब परिष्कृत कर के 'संस्कृत ' बना दिया गया वह विक्रमीय पांचवीं-छट्ठी शताब्दी पूर्व जन-साधारण उपयोग के सर्वथा अनुपयुक्त सिद्ध रही और प्राकृत ने जन-साधारण भाषा का पद ग्रहण किया। भगवान् महावीर और गौतमबुद्ध लोकनायकों ने प्राकृत को ही मान दिया; क्यों कि उन्हें तो जन-साधारण के निकट पहुंचना था और लोक-जीवन को ऊपर उठाना था। वे अपने विचार, उपदेश, संदेश, शिक्षादि को जनसाधारण तक जन-साधारण की भाषा के माध्यम द्वारा ही पहुँचा सकते थे और उनको अभिप्रेत ही यही था; वरन् उनका मिशन-उद्देश्य था। इसीके लिये तो उन्होंने राजप्रासादों का परित्याग किया था, अनेक विघ्न और बाधाओं से सदापूर्ण रहनेवाले सन्यास-व्रत को अंगीकृत किया था। सम्राट अशोकने भी इसी लिए लोकभाषा में ही शिला-स्तंभों पर अपने उपदेश उत्कीर्णित करवाये थे । जैन और बौद्ध धर्मों का साहित्य 'प्राकृत-पाली ' में ही रचा गया। परवर्ती जैनाचार्योंने तो 'प्राकृत ' में ही ग्रन्थ रचना करना चालू रक्खा; परन्तु परवर्ती बौद्ध भिक्षुकोंने बौद्ध साहित्य की रचना संस्कृत में करनी प्रारंभ कर दी थी। फलतः बौद्ध-पाली साहित्य की अपेक्षा जैन साहित्य 'प्राकृत' में बहुत अधिक एवं विविध है। विक्रमीय पांचवीं-छट्ठी शताब्दी पूर्व से विक्रमीय तृतीय शताब्दी का मध्यवर्तीकाल 'प्राकृत ' भाषा का स्वर्णयुग कहा गया है । इस काल में प्राकृत ' अपने पूर्ण साहित्यिक रूप को पहुंच चुकी थी। प्रत्येक उन्नत भाषा के रूप के दो स्तर तो होते ही हैं-साधारण और असाधारण । प्राकृत का असाधारणरूप साहित्य के लिये रहा और साधारणरूप जनसाधारण की भाषा के रूप में । विक्रमीय तृतीय शताब्दी में भारत में बाहर से कई ज्ञातियों का निरंतर आना पाया जाता है। वे ज्ञातियां भी अपने साथ अपने मूल रीति-रश्म और अपनी भाषा को लेकर आई थीं। प्राकृत के जन-साधारण भाषा के रूप में उनकी भाषा का अपभ्रंश-युग सम्मिश्रण हुआ । ' आभिरोक्ति ' एक भाषा का नाम प्राचीन ग्रन्थों में उल्लेखित मिलता है, जो विक्रम की तृतीय शताब्दी में प्रयुक्त होती हुई वर्णित की गई है। ' अपभ्रंश-भाषा काल ' यहीं से माना जाता है।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy