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हिन्दी भाषा के क्रमिक विकास पर हिन्दी-साहित्य के बड़े २ विद्वान् अपने कई
वर्षों के निरंतर अध्ययन से बड़े २ इतिहास लिख चुके हैं
परन्तु फिर भी वे अपूर्ण हैं,
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अपन हैं ऐसा हम सब को भास होता है अपूर्ण पूर्ण किया जा सकता है, अपन सांग बनाया जा सकता है; परन्तु यहां अब - अब दूसरी विक
लता यह खलने लगी है कि हिन्दी भाषा के क्रमिक विकास की शोध ही मूलतः सही स्थान से प्रारंभ ही नहीं हुई । सही दिक्षा में आगे उसका निर्वाह भी नहीं रहा है। स्पष्ट यह है कि हिन्दी का अभी तक सर्वमान्य कहा जाय, अधिकांशतः प्रामाणिक तथ्यों पर जिस की रचना की गई हो, सही दिशाओं में से जिसको घूमा कर बढ़ाया हो ऐसा इतिहास लिखा ही नहीं जा सका है। अब तक जो कुछ इस दिशा में प्रयत्न हुए हैं वे फिर भी साधन-सामग्री का अच्छा काम दे सकते हैं और यह भी ' हिन्दी का क्रमिक विकास' ' हिन्दी के विकास का इतिहास' आदि महत्त्व के प्रश्नों को सुलझानेवालों के लिये एक बहुत ही बड़ी समस्या का हल बहुत-कुछ अंशों में हो गया है ।
प्राकथन
हिन्दी जैन साहित्य
हिन्दी और हिन्दी जैन साहित्य
श्री अगरचंद्र नाहटा और दौलतसिंह लोढ़ा अरविंद बी. ए.
हिन्दी - साहित्य - विशारदों ने जहां ' आदि हिन्दी काल ', ' मध्य हिन्दी काल' और 'आधुनिक हिन्दी काल' जैसे काल-खण्ड कर के हिन्दी - साहित्य के क्रमिक विकास पर विचार करना प्रारंभ किया- वे ' आदि हिन्दी - काल में ' केवल ' वीर गाथाओं' का समावेश करके भारी भूल कर गये और जिसका समावेश अनिवार्यतः अपेक्षित था, उसको गोण समझ ( ७८ )
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