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साहित्य हिन्दी और हिन्दी जैन साहित्य ।
६२३ कहा'; कवि रामसिंहने ‘पाहुड़ दोहा'; श्रीचन्द्रने ‘पुराणसार' और कनकामर पंडितने 'करकण्डुचरिय' नामक ग्रंथों की रचनायें की हैं। निम्न उदाहरणों में अंकुरित हिन्दी के दर्शन करियेःकुपात्रदान का फल (१० वीं शताब्दी के अंतिम भाग में )
हय गय सुणदहं दारियह मिच्छादिद्विहिं भोय ।
ते कुपत्तदाणं घिवहं फल जाणहु बहु चेय ॥ ८२ ॥ डा० रामकुमार वर्मा लिखित हि. सा. आ. इति० (देवसेनकृत 'सावयधम्मदोहा') रानियों का जीवन-( राष्ट्रकूटवंशीय तृ० कृष्णराज का समय )
कोइ मलय-तिलक देवहिं करई कोइ आरसिही आगे धरेई ।
कोइ अपै वर-रतना-भरना । कोइ लेपै कुंकुमहीं चरणा ॥ हिन्दी-काव्य-धारा पृ. २०१ ( पुष्पदन्तकृत 'आदिपुराण' पृ. ३९) डा० रामकुमार वर्मा रचित हि० सा० के आ० इतिहास से उद्धृतः --
मुहु मारुण मलय वणराइन । सिंहलदीवि रयण विख्याइव । सोहइ दरपणि कील करती । चिहुर तरंग मंग विवरती ॥
(धनपालकृत 'भविसयदत्तकहा') जोइय हियड़ई जासु पर एक जिणिवसइ देउ । जम्मण मरण विवजियउ तो पावई परलोउ ।। ७६ ॥
(मुनिरायसिंहकृत 'पाहुड़दोहा') संसार भमंतह कवणु सोक्खु । असुहा बड पावह विविह दुक्खु ॥
( कनकामरकृत ' करकण्डुचरिउ') मुनि रामसिंह का समय वि. सं. १०५७ के लगभग और कनकामर का समय वि. सं. १११७ माना गया है।
वि. १२ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से राजस्थानी--हिन्दी का उत्तरोत्तर विकाश की ओर गतिशील रहने के प्रमाण मिलते हैं और अपभ्रंश श्री हेमचंद्र युग में आकर गौण अर्थात्
अप्रधान बनने लग जाती है अर्थात् राजस्थानी-हिन्दी रचनायें बनने . हिन्दी-अपभ्रंश लगी। अपभ्रंश-हिन्दी रचनाओं का काल हमने वि. १६ वीं शताब्दी
के पूर्वार्द्ध पर्यंत ही समीचीनतः माना है । इस समय तक की प्राप्त श्वेताम्बर रचनाएं जिन्हें हिन्दी कहा जाता है वे राजस्थानी