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________________ और उसका प्रसार जैनागमों में महत्त्वपूर्ण काल-गणना । ५७७ काल-गणना की भाँति क्षेत्र - गणना की भी जैनागमों में बड़ी सूक्ष्म चर्चा है । असंख्यात् समुद्र और ऊर्ध्व और अधोलोक का परिमाण समस्त लोक १४ राजलोक के नाम से कहा जाता है। उसमें रज्जू का परिमाण आदि बहुत ही विशाल है । और भी अनेक बातों में जिस सूक्ष्मता के साथ विवरण मिलता है अतिशय ज्ञानी द्वारा ही सम्भव है । जो लोग आज 1 का ज्ञान - विज्ञान पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ा-चढ़ा मानते हैं उन्हें हमारे प्राचीन साहित्य का विस्तृत और सूक्ष्म अध्ययन करना चाहिये । ठीक है युग की आवश्यकता के अनुसार यान्त्रिक और भौतिक विकास जो विज्ञान द्वारा कई क्षेत्रों में पूर्वापेक्षा उन्नत हुआ है; फिर भी भारत के प्राचीन साधक ऋषि और तीर्थंकरों ने जो आत्मिक व अनुभव ज्ञान में उन्नति की - उसके सामने आज का ज्ञान-विज्ञान बहुत ही साधारण लगता है । उनके ज्ञान का विकास पुस्तकों पर ही आधारित न होकर आत्मा की निर्मलता पर आधारित था और साधना के द्वारा उन्होंने अपनी शक्ति का विकास बहुत ही असाधारण रूप में किया था जिन्हें आज की दुनियां पहुंच ही नहीं सकती। आज तो उन बातों में लोग विश्वास तक नहीं करते । पातञ्जली योगसूत्रों में संयम की साधना से जो अद्भुत शक्तियां या विभूतियां साधक में प्रगटित या प्राप्त होती हैं उनका कुछ विवरण है । इसी प्रकार जैनागमों में २ प्रकार की लब्धियां मानी गई हैं जिनमें आश्चर्यजनक शक्ति मिलती है । आकाशगामिनीविद्यासम्पन्न मुनियों का विवरण मिलता है जो बिना किसी यन्त्र के जब चाहे, जहां चाहे जा सकते थे। आहारक शरीर का विवरण भी चमत्कारिक है। वैक्रिय लब्धिसम्पन्न व्यक्ति रूपपरावर्तन जैसे चाहें कर सकते थे । देव - विमानों और इनकी वैक्रिय विकुर्वणा का वर्णन भी अद्भुत है । अवधिज्ञान के द्वारा बहुत विशाल प्रदेश और अनेक जन्मों की बातें ज्ञात हो जाती थीं । मनःपर्यव ज्ञान - द्वारा प्रत्येक मानवाले व्यक्ति के मन के परिणाम जान लिये जाते थे और कैवल्य ज्ञान में तो कोई भी बात अज्ञात नहीं रहती थी । भूत, भविष्यत्, वर्तमान काल के सूक्ष्मातिसूक्ष्म सभी बातें प्रत्यक्ष हो जाती थीं । उन महापुरुष के ज्ञान की तुलना आज हो ही कैसे सकती है ? हमें अपने प्राचीन साहित्य का गम्भीर एक विशाल अध्ययन करते रहना चाहिये । 1 १. सर्वेभ्यः सूक्ष्मतरः समयः ॥ २. असंख्यातैः समयैरावलिका ॥ ३. संख्यातावलिकाभिरुच्छ्वासः || ४. त एव संख्येयानिःस्वासः ॥ ७३ परिशिष्ट संख्या व अंक ५. द्वयोरपि कालः प्राणः ॥ ६. सप्तभिः प्राणभिः स्तोकः ॥ ७. सप्तभिः स्तोकैर्लवः ॥
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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