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________________ ५७६ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जैनधर्म की प्राचीनता १ उत्सर्पिणी या १ अवसर्पिणी होती है । इन दोनों के मिलाने से अर्थात् २० कोडाकोड़ी सागरोपम का एक कालचक्र होता है। इससे अधिक समय को अनन्तकाल कहते हैं। स्थानांग सूत्रो में औपमिक काल आठ प्रकार का बताया है ( १ ) पल्योपम (२) सागरोपम (३) उत्सर्पिणी ( ४ ) अवसर्पिणी (५) पुद्गलपरावर्त (६) अतिद्धाता (७) अनागताद्वा ( ८ ) सर्वाद्धा । इन में से अवसर्पिणी उत्सर्पिणी तक का विवरण उपर आया है । अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी का पुद्गलपरावर्त होता है । भगवती सूत्र के १२ वें शतक के चौथे विवेचन में पुद्गलपरावर्त ७ प्रकार के बताये हैं। औदारिक पुद्गल. परावर्त, वैक्रिय पुद्गल-परावर्त, तैजसपुद्गलपरावर्त, कार्मणपुद्गलपरावर्त, मनपुद्गलपरावर्त, वचन पुद्गलपरावर्त और आनप्राणपुद्गलपरावर्त । नैरयिकों को नैरयिक-रूप में या असुरकुमारादि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक के रूप में एक भी औदारिक पुद्गलपरावर्त व्यतीत नहीं हुआ और न होगा ही। पृथ्वीकाय से मनुष्य पर्यन्त भवों में अनन्त पुद्गलपरावर्त व्यतीत हुए और अनन्त व्यतीत होंगे। वैमानिक पर्यन्त सर्व जीवों के लिए इसी प्रकार जानना चाहिये। यहां औदारिक की तरह ही सातों पुद्गलपरावर्त कहने चाहिये । जहां परावर्त होते हैं वहां व्यतीत तथा भावी दोनों ही अनन्त जानने चाहिये। औदारिक शरीर में रहे हुए जीव-द्वारा औदारिक शरीर योग्य जो द्रव्य औदारिक शरीर रूप में ग्रहण-बद्ध, स्पष्ट, स्थिर, स्थापित, अभिनिविष्ठ, संप्राप्त-अवयरूप में गठित, परिणत निजीण किये गये तथा जो जीव प्रदेश से निकल गये व सर्वथा भिन्न हो गये, वे द्रव्य औदारिक पुद्गलपरावर्त कहे जाते हैं। औदारिक की तरह ही अन्य वैक्रिय शरीर पुद्गलपरावर्त आदि जानने चाहिये । अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में एक औदारिक पुद्गलपरावर्त बन सकता है । इसी प्रकार अन्य पुद्गलपरावर्त जानने चाहिये। इन सबों के निष्पत्तिकालों में सबसे अल्प कर्मण पुद्गलपरावर्त का निष्पत्तिकाल है, इससे अनन्तगुणित तैजस का, इससे अनन्तगुणित औदारिक का, इससे अनन्तगुणित आनप्राण का, इससे अनन्तगुणित मन का, इससे अनन्त गुणित वचन का और इससे अनन्तगुणित वैक्रिय का है। ___ अल्पत्वबहुत्व की अपेक्षा से सब से अल्प वैक्रिय पुद्गलपरावर्त हैं। इनसे अनन्तगुणित मनके, इनसे अनन्तगुणित आनप्राण के, इनसे अनन्तगुणित औदारिक के, इनसे अनन्तगुणित तेजस के और इनसे अनन्तगुणित कार्मण पुद्गलपरावर्त हैं।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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