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________________ और उसका प्रसार जैनागमों में महत्त्वपूर्ण काल-गणना । ५७५ परिधि का नाप तीन योजन से कुछ अधिक होता है। उसमें सिर मुडाने के बाद एक दिन के, दो दिन के यावत् सात अहोरात्रि बढ़े हुए केशों के टुकड़ों को ऊपर तक दबा-दबा कर इस प्रकार भरा जाय कि उनको न अग्नि जला सके, न वायु उड़ा सके और न वे सड़ें या गलें। उनका किसी प्रकार विनाश न हो सके । कुँए को ऐसा भर देने के बाद प्रतिसमय एक-एक केश खंड को निकाला जाय। जितने समय में वह गोलाकार कुआँ खाली हो जाय, उसमें एक भी केश का अंश न बचे-उतने समय को व्यवहारिक उद्धारपल्योपम कहते है। ऐसे कोड़ाकोड़ी व्यवहारिक उद्धार पल्योपम का एक व्यवहारिक उद्धारसागरोपम होता है । इस कल्पना से केवल कालप्रमाण की प्ररूपणा की जाती है । २ सूक्ष्म उद्धारपल्योपम-उस उपयुक्त कूएँ को एक से सात दिन तक बढ़े हुए केशों के असंख्य टुकड़े करके उनसे उसे उपर्युक्त विधि से भरकर प्रति समय एक-एक केशखंड यदि निकाला जाय तो इस प्रकार निकाले जाने के बाद जब कुँआ सर्वथा खाली हो जाय, उतने काल का एक सूक्ष्म उद्धारपल्योपम होता है । ३ व्यवहार अद्धापल्योपम-उपरोक्त कुँए को व्यवहारिक उद्धार की उपयुक्त विधि से भरकर दबे हुए केश खण्डों में से एक-एक केश को सौ-सौ वर्षों बाद निकाले जाने पर जब कुँआ खाली हो जाय तो उतने समय को व्यवहारिक अद्धापल्योपम कहते हैं। ४ सूक्ष्म अद्धापल्योपम-पूर्वोक्त कुँए को १ दिन से ७ दिन के बढ़े हुए केशों के असंख्य टुकड़े करके पूर्ववत् विधि से दबा कर भर दिया जाय और फिर सौ-सौ वर्षों के अनन्तर एक-एक केशखण्ड निकाला जाय । जितने समय में वह कुँआ खाली हो जाय, उतने काल को सूक्ष्म अद्धापल्योपम कहते हैं । ५ व्यवहारक्षेत्र पल्योपम-व्यवहार उद्धारपल्योपम के केशोंने जितने आकाशप्रदेश को स्पर्श किया है, उतने आकाशप्रदेश में से एक-एक को प्रतिसमय में अपहरण करने में जितना काल लगे उसे व्यवहारिक क्षेत्र पस्योपम कहते हैं । (आकाश के प्रदेश केश-खण्डों से भी अधिक सूक्ष्म है । ) ६ सूक्ष्मक्षेत्र पल्योपम-सूक्ष्म उद्धारपत्योपम के केशखण्डों से जितने आकाशप्रदेशों का स्पर्श हुआ हो और जिनका स्पर्श न भी हुआ हो उनमें से प्रत्येक प्रदेश से प्रतिसमय अपहरण करते हुए जितना समय लगे उसे सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपम कहते हैं। ___ दश क्रोडाकोड़ी पल्योपम का एक सागरोपम होता है । पल्योपम के ६ मेदों के अनुसार सागरोपम के भी ६ भेद होते हैं। ऐसे दश क्रोडाकोड़ी सूक्ष्म अद्धा सागरोपमों की
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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