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________________ जैनागमों में महत्त्वपूर्ण काल-गणना श्री अगरचन्द नाहटा उपलब्ध जैन साहित्य में सब से प्राचीन ग्रन्थ एकादशांगादि आगम साहित्य है । भगवान् महावीरने समय २ पर जो प्रवचन दिए, उनका संकलन उनके प्रधान शिष्य गणधरोंने इन आगमों के रूप में किया है । गणधरों के बाद के आचार्यों ने भी गुरुपरम्परा से जो ज्ञान प्राप्त किया उसको उपांग, छेदसूत्र प्रकीर्णक आदि ग्रन्थों के रूप में ग्रथित किया । उन आगमों के लम्बे समय तक मौखिक रूप में ही पठनपाठन होने के कारण ज्यों-ज्यों स्मरणशक्ति क्षीण होती गई, उनका बहुत सा अंश विस्मृत होता चला गया । समय-समय पर उनको सुव्यवस्थित करने के लिए मुनियों के सम्मेलन भी हुए जो आगम-वाचना के नाम से प्रसिद्ध हैं। वर्तमान में उपलब्ध आगमों का पाठ वीर निर्वाण सं. ९८० में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण द्वारा सौराष्ट्र के वल्लभीनगर में लिपिबद्ध किया गया जो वल्लभी - वाचना कहलाती 1 है । इससे पहले मथुरा में जो आगमों का पाठ निर्णय हुआ था वह माधुरी - वाचना के नाम से प्रसिद्ध है, उसका उल्लेख कहीं कहीं पाठ-भेद के रूप में वल्लभी - वाचना के आगम आदि की टीकाओं में पाया जाता है। इन आगमों में से कुछ की सर्वप्रथम टीका प्राकृत भाषा में निर्युक्ति के नाम से आचार्य भद्रबाहुने की । उनके रचित दस आगमों की नियुक्ति का उल्लेख मिलता है जिन में एक-दो को छोड़ बाकी प्राप्त हुए हैं। फिर भाष्य और चूर्णिसंज्ञक टीकाएँ भी रची गईं। आठवीं शताब्दी से संस्कृत टीकाओं का रचा जाना भी प्रारम्भ था । बारहवीं के करीब प्रायः समस्त आगमों की टीकाएँ तैयार हो चुकीं । इस आगमिक साहित्य का परिमाण करीब ५ लाख श्लोकों से भी अधिक माना जाता है । यद्यपि मूल आगमों के जितने बड़े परिमाण के होने का उल्लेख मिलता है उससे उपलब्ध आगम बहुत कम परिमाण वाले ही अब उपलब्ध हैं । बारहवां दृष्टिवाद नामक अंग बहुत ही महत्वपूर्ण और विशाल था । वह तो अब सर्वथा लुप्त हो चुका है। उसका एक अंश चौदह पूर्व के नाम से प्रसिद्ध था । वह भी भगवान् महावीर के करीब २०० वर्ष बाद ही आचार्य भद्रबाहु और स्थूलभद्र के बाद लुप्त हो गया । इसके बाद दस पूर्वो का ज्ञान वीर निर्वाण के करीब ६०० वर्ष तक चलता रहा । तत्पश्चात् पूर्वो का ज्ञान भी लुप्त हो गया । यद्यपि उनके आधार से रचित थोड़े से ग्रन्थ अब भी प्राप्त हैं । इस प्रकार उपलब्ध आगमों में केवल - ज्ञानी और श्रुत - ज्ञानी के महान् ज्ञानका असंख्यातवां व अनन्तवां अंश ही अब प्राप्त है । ( ७१ )
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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