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________________ और उसका प्रसार जैनधर्म की ऐतिहासिक खोज ।। भगवान ऋषभदेव हैं । व्रात्य सम्प्रदाय के वे ही मूल प्रवर्तक और संस्थापक थे । सायण ने ब्रात्य की परिभाषा बताते हुए जिन विशेषणों को उद्धृत किया हैं वे भारत सम्राट के पिता ईक्ष्वाकु वंश के प्रणेता भगवान ऋषभदेव को ही दिये जा सकते हैं । ऋषभदेव का चिह्न बैल " वृषभ " था। आर्य और व्रात्यानुयायी सैंधवों और द्रविड़ों का भी-चिह्न 'वृषभ ' था । आर्य गायको पूजते थे और सैन्धव आदिवासी आर्य वृषभ को । वास्तव में यदि पूरी खोज की जाय तो हमें इस रहस्य का उद्घाटन करने में पूर्णतः सफलता मिल सकती है कि शिव, रुद्र, आदिनाथ ये सब उस ऋषभदेव के नाम हैं। शिव, सिद्धशिला, पार्वती, रत्नमय त्रिशूल, अहिंसा का प्रतीक वृषम उसी ऋषभीय संस्कृति के उपकरण हैं। अब भी भारत में शिव और रुद्र ये दो ही रूप पूजे जाते हैं। जंगली जातियां रुद्र के नाम से और सभ्य शिव के नाम से उसी ऋषभदेव को पूजती हैं । लिंगोपासना ऋषभ-संस्कृति में कैसे प्रविष्ट हुई और असभ्य लोगों ने उसका शिव के साथ सम्बन्ध बैठाया अथवा किसी कल्याणकारक तत्व का प्रतीक विशेष वामियों शैवों और इन्द्रियपोषकों का कैसे लक्ष्य बन गया यह इतिहास अभी अंधेर में हैं । आर्यों ने जंगली लोगों को शिश्न देवा भी कहा है। हो सकता है कि अर्द्ध सभ्य जातियें लिंगोपासना करती आई हों। फिर भी शिव और ऋषभदेव का सम्बन्ध परस्पर में मिलता अवश्य है । वेदों में ब्रात्य मुनियों को इन्द्रिय-निग्रही, निर्मोही, त्यागी तथा त्रिगुप्ति का धारक बतलाया है । यह तपस्या का स्वरूप भगवान ऋषभदेव से परिपूर्ण सम्बद्ध है। ऋषभदेव की परम्परा क्षत्रियों के हाथों में आज तक सुरक्षित रही है । वेदकाल में यज्ञ को केवळ ब्राह्मण ही मानते थे, क्षत्रियों को यज्ञ का अधिकारी नहीं माना जाता था। फिर अहिंसा के सामने यज्ञों की रक्षा करना ब्राह्मणों के बूते की बात नहीं रही। किन्तु क्षत्रियों और ब्राह्मणों में जहाँ दूसरे वैचारिक और रक्त के अन्तर थे, वहां पर सैद्धांतिक और धार्मिक अन्तर भी था । इसी धर्म-भिन्नता ( हिंसा अहिंसा) के नाम पर ब्राह्मणों और क्षत्रियों में ठन जाती है । क्षत्रिय सुव्यवस्थित थे और ब्राह्मणों को दबना पड़ता था। इसी लिये वेद में युद्ध में जीतने के लिए बहुत सी प्रार्थनाओं का सद्भाव पाया जाता है। परशुराम का २१ बार पृथ्वी को निक्षत्रिय बनाना इसी संघर्ष का द्योतक है । ब्राह्मणों की धाक एक बार भारत पर पूर्णतः बैठ गई थी, किन्तु ब्राह्मण उस राज्य को संभाल न सके। और कश्यप को पाताल में धसती हुई और अराजकता परिपूर्ण पृथ्वी को अपनी जांघ से रोकना पड़ा और बचे हुए ईक्ष्वाकु वंशीय राजपुत्रों को पृथ्वी सौंपनी पड़ी ( महाभारत शान्तिपर्व अ. ५०)। यह कहानी ब्राह्मण और क्षत्रिय संघर्ष और संधि दोनों को स्पष्ट कर रही है। इसी समझौने के फलस्वरूप ब्राह्मण और क्षत्रियों के देवताओं, धर्मों, मान्यताओं में आदान-प्रदान हो गया और परस्पर एक
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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