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________________ ५२४ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रंथ जैनधर्म की प्राचीनता निश्चित उन भारत के ब्रह्मर्षियों के खेल का स्पष्ट भान हो जायगा कि हिन्दुधर्म को श्रुतिधर्म न कह कर श्रुतिस्मृतिधर्म, निगमागमधर्म और श्रोतस्मृतिधर्म क्यों कहा जाता है ? __ व्रात्यों के ज्ञान, व्रत, विचार और आचार तथा व्यवस्थाओं को पुराणों की स्मृतियों में इस प्रकार समन्वित कर दिया है कि कोई आर्य कालीन वेदों से प्राक् अहिंसक संस्कृति की कल्पना भी नहीं कर पाये । रुद्र और शिव की पूजा, भगवान भौतिक ऐषणाओं के पराधीन थे। मानसिक-तृप्ति और आत्म-तुष्टि यही दोनों में मुख्य अन्तर था। ब्रात्यों का अटूट विश्वास था कि मुक्ति आत्म-समाधि में है और वह केवल त्याग और निवृत्ति से ही प्राप्त की जा सकती है । किन्तु आयों का विश्वास भोग और उसके साधन यज्ञ पर टिका हुआ था। यह कारण है कि उस प्राचीनकाल का भी निवृत्ति और प्रवृत्ति, यज्ञ और व्रत का संघर्ष जोरों का रहा है। और वेदों में भी यज्ञ के समर्थन और विरोध में दोनों प्रकार की वाणियों का समावेश हो गया है। व्रात्यों का संस्थापक: इन तमाम चिन्तनों से इस निर्णय पर तो हम पहुंच जाते हैं कि व्रात्य धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म है । ऋषभदेव को २४ अवतारों में अष्टम अवतार मानना और बुद्ध भगवान को दस अवतारों में अष्टम अवतार मानना ही इस विलयन नीति का रहस्य उद्घाटन करता है। ___ शतपथ ब्राह्मण में जहाँ एक ओर मांस को श्रेष्ठ अन्नाद्य बताया है और देवताओं को मांसप्रिय भी कहने में स्मृतियों ने संकोच नहीं किया हैं, वहाँ उपनिषदे अहिंसा को परमधर्म, मांस को निन्ध कहने लग पड़ी हैं । यह सब आर्य-संस्कृति का व्रात्यों के प्रभाव को स्वीकार करते हुए भी विलयन नीति का अनुकरण है। कहने का आशय यह नहीं कि अच्छी बात का अनुकरण नहीं करना चाहिए-अपितु करना ही चाहिये । किन्तु उसका व्यवस्थापक और निर्माता कौन ! यह प्रश्न तो हमारे सामने ही खड़ा रहता है। विश्व के गण्यमान्य ऐतिहासिकों ने इस बात को स्वीकार कर लिया है कि ब्रात्य संप्रदाय के आधुनिक संस्करण को श्रमणधारा अथवा जैनधर्म कहा जाता है। आज भी जैनधर्म का शास्त्रीय नाम व्रात्य, व्रती, महाव्रती, अणुव्रती, सुव्रती, व्रताव्रती, आदि विभागों पर ही अवलम्बित है । यद्यपि ब्रात्यों की त्याग-वृत्ति से अभिभूत कितने ही सम्प्रदाय वैदिक और अवैदिक रूप से भारत में विकसित हो चुके हैं; किन्तु व्रात्य संस्था का अविकल रूप ही रखने का श्रेय यदि किसी को दिया जा सकता है तो वह जैन सम्प्रदाय को ही । जैन सम्प्रदाय व्रत को अपना मुख्य धर्म मानती है और उन व्रतों के मूल व्याख्याकार
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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