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________________ ५२३ और उसका प्रसार जैनधर्म की ऐतिहासिक खोज । वह स्वर्ग यज्ञ से प्राप्त किया जा सकता है। __" यज्ञो वै श्रेष्ठतमंकम" (शतपथ ब्राह्मण ) __" यज्ञ सभी कर्मों में श्रेष्ठ है," अमिहोत्र ही यज्ञ है। विना पत्नी के यज्ञ कभी नहीं हो सकता। " अयज्ञो वा एवः । योऽपत्नीक: " ( तै. बा. २-२-२-६) आयों में अहिंसा के स्थान पर सत्य की खूब प्रतिष्ठा थी। ब्राह्मण ही मनुष्यों के देवता है । " अथ है ते मनुष्यदेवा ये ब्राह्मणाः " ( षड़विंश १-१) यज्ञोपवीतधारक ही यज्ञ कर सकता है । ( तैतरीयान्यक ) इत्यादि बातों से तथा सामान्य मुनि की परिभाषा बताते हुए लिखा है " आत्मा को जाननेवाला ही मुनि हो सकता है। मुक्ति-लोक की इच्छा रखनेवाले ही मुनिधर्म का अनुसरण करते हैं । अतः मुनि पुत्र, धन और कीर्ति को त्याग कर भिक्षा पर ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं । ( बृहदारण्योपनिषद् ४-४-२२) इस से आगे सामवेदीय गौतम-संहिता में से अवशिष्ट गौतम धर्मसूत्र में संन्यासी धर्म का विवेचन करते हुए लिखा है-भिक्षु को सर्वथा अपरिग्रही होना चाहिए ( अनिचयो भिक्षु )। पूर्ण ब्रह्मचारी वर्षाकाल में उसे एक स्थान पर ही स्थिर वास करना चाहिए। वर्षाकाल के अतिरिक्त संन्यासी दो रात एक ग्राम में न रहे । ( गौतम धर्म ११ सूत्र ) __इन शब्दों से ऐसा प्रतीत होता है कि व्रात्य परम्परा के श्रुतज्ञान से अर्थात् जैनागमों के वाक्यों से भी यह आर्यब्राह्मण और व्रात्यों का भेद भली-भांति जाना जा सकती है। ऐतरेय ब्राह्मण में जहाँ " चरन्वै विंदति मधु चरन्स्वादु मृदुम्बरम् " कह कर मधु और उदुम्बर फल की प्राप्ति का आश्वासन दिया है वहाँ व्रात्यधर्म में मधु और उदुम्बर फल दोनों का पूर्णतः विरोध पाया जाता है। ___ यही क्या, व्रात्य और ब्राह्मणों में जीवन दर्शन के मौलिक-दृष्टिबिंदु में भी महान अन्तर पाया जाता है । व्रात्य का साध्य मुक्ति है और याज्ञिक का प्राप्य स्वर्ग है । संक्षेप में आर्य जीवन को रसमय, भोगभय और वैभवमय बनाने में अपनी इतिमाता मानते थे और व्रात्य वैभव, सम्पत्ति, परिग्रह को त्यागने में ही मोक्ष मानते थे। व्रात्य और इनके अनुयायी भारतीय थे। वे भोगवाद से उकता गये थे । किन्तु आर्य अभी सीधा संस्कृत में अनुदित कर दिया है। नहीं तो मुनि और तपस्वियों का विधान तथा साधुव्यवस्था वेदों में कहीं भी उपलब्ध नहीं है । प्राचीन वेदों को ही केवल यदि वैदिक धर्म का आधार मान लिया जाय तो हमें
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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