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________________ ५२६ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जैनधर्म की प्राचीनता दूसरे को समझने का अवसर प्राप्त हुआ। यह काल भारत में आदान-प्रदान का था । इसी लिये ऋग्वेद और दूसरे ब्राह्मण ग्रंथों में ब्रात्य संप्रदाय की मान्यताओं की चर्चा की उदारता दिखाई गई है। ___स्वयं ऋग्वेद में भगवान ऋषभदेव से प्रार्थना की गई है “ आदित्य त्वमसि आदित्य सद् आसीत् अस्तभ्रादधां वृषभो अंतरिक्षं जमिxते वरिमागम पृथिका आसीत विश्व भुवनानि सम्राट् विश्वेतानि वरुणस्य वचनानि " ( ऋग्वेद ३०, अ० ३) अर्थात् " हे ऋषभदेव ! सम्राट् ! संसार में जगतरक्षक व्रतों का प्रचार करो। तुम ही इस अखण्ड पृथ्वीके आदित्य सूर्य हो, तुम्ही त्वचा और साररूप हो, तुम्ही विश्वभूषण हो और तुम्हीं ने अपने दिव्य ज्ञान से आकाश को नापा है।" _इस मंत्र में वरुण वचन से व्रतों का संकेत किया गया है । वास्तव में व्रतों के उद्गाता भगवान ऋषभदेव ही थे। इस तथ्य को वेद ने ही नहीं, मनुजीने भी स्वीकार किया हैं। और मनुस्मृति में उन्हें वैवस्वत सत्यप्रिय-व्रत-अग्निध्रम नाभि और ईक्ष्वाकु (ऋषभदेव ) को छट्ठा मनु स्वीकार किया है । और वेदकालीन दूसरी सूची अनुसार वैवस्वत-वेन-धृष्णु इस प्रकार बताया गया है। जैन आगमों में १४ मनुओं के स्थान पर सात कुलकरों का वर्णन प्राप्त होता है और उसमें सातवें कुलकर का नाम नगमे और ऋषभदेव बताया गया है। वेद के आधार पर यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि व्रात्य सम्प्रदाय के मूल संस्थापक और भारतीय संस्कृतिप्रतिष्ठापक भगवान ऋषभदेव थे। कहने का सारांश इतना ही है कि ऋषभदेव ने व्रात्य धर्म, त्याग धर्म और परमहंस धर्म का प्रतिपादन किया जिसका अविकल और अक्षुण्ण रूप जैन धर्म है । जैन धर्म और व्रात्य धर्म दोनों पर्याय हैं। व्रात्यधर्म का आदि इतिहास वेद पाक्कालीन से प्रवाहित है। जब आर्यों के आगमन और वेदों के निर्माण जैसे ऐतिहासिक तथ्यों पर भी संसार का कोई इतिहासज्ञ अन्तिम और प्रमाणिक मत नहीं बना पाया है तो वेदों से भी प्राचीन व्रात्यों का आदि इतिहास कौन निर्धारित कर सकता है। इतिहास तो केवल इतना कह कर मौन हो जाता है कि व्रात्यों का जव वेदों में वर्णन प्राप्त होता है तो व्रात्य शाखा का प्रवचन वेद प्राक्कालीन ही मानना पड़ेगा। व्रात्य संप्रदाय उन सार्वभौम उदार विश्वहितकारक नियमों का संग्रह है जिन्हें संसार के विराट महापुरुष ऋषभदेवने संसार के सामने अनुभवपूर्वक निर्देशित किया था। यदि जीवशोधन की वृत्ति और विकारनिरोध चिकीर्षा को जैनधर्म माना जाय तो वह सदा शाश्वत धर्म है। वास्तव में जैनधर्म विचारप्रधान है। आचारों की मुख्यता होने पर भी विचारों के
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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