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________________ ५०६ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जैनधर्म की प्राचीनता या ऋषभ प्राचीन भारत में अवश्य हुये थे; वह कौन थे ! यह बात उक्त वेद मन्त्रों में स्पष्ट नहीं कही गई है। किन्तु वैदिक मान्यता यह है कि वैदिक अनुश्रुति की व्याख्या पुराण और काव्य के आधार से करना उचित है । अतएव हिन्दू पुराणों के आधार से ऋषभदेव के व्यक्तित्व का परिचय पाना समुचित है। हिन्दू पुराणों से स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में केवल एक ऋषभ अथवा वृषभदेव नामक महापुरुष हुये, जो नाभिराय और मरुदेवी के पुत्र थे। 'भागवतपुराण' (अ० ५), विष्णुपुराण (२-१, पृ० ७७ ), मार्कण्डेयपुराण (अ० ५० पृ० १५०) ब्रह्माण्डपुराण (अ० १४ श्लो० ५९-६१) और · अग्निपुराण' (अ० १०) आदि पुराणों में ऋषभदेव का ऐसा ही वर्णन मिलता है। उन्होंने परमहंसवृत्ति को धारण करके आत्मयोग की साधना और प्रचार किया था। इसी लिये वह आठवें अवतार माने गये हैं। 'महाभारत' के शांतिपर्व में भी उनको महायोगी और आहेत (जैन ) मत को दिखानेवाला लिखा है । हिन्दू पुराण कारों का यह वर्णन ठीक वैसा ही है जैसा कि जैन शास्त्रों में मिलता है । अतः कोई कारण नहीं कि हम उन पर विश्वास न करें और दोनों ऋषभों को अभिन्न और एक न मानें । वैदिकधर्मीय विद्वान् प्रो० विरुपाक्ष वॉडियार, टीकाकार श्री ज्वालाप्रसाद इत्यादिने स्पष्ट लिखा है कि वेदादि में जिन ऋषभ का उल्लेख है वह जैन धर्म के संस्थापक तीर्थंकर ऋषभ हैं। डॉ. राधाकृष्णन्', डॉ० लोहा, प्रो. स्टीवेन्सन प्रभृति आधुनिक विद्वानों १. सार्वतुक्रमणिका ( लंदन ) पृ. १६४ व असुर इन्डिया, भूमिका देखो । २. 'ऋषभादिनाम महायोगी नामाचारे । दृष्टाय अर्हतारयो मोहिता ॥' ३. जैनपथ-प्रदर्शक, भा. ३ अंक ३ पृ. १०६ । ४. भागवद् पुराण टीका ( मुरादाबाद ) भूमिका देखो। M.“ The Bhagawata Purana endorses the view that Rsabha was the founder of Jainism. There is evidence to show that so far back as the first century B. C. there were people who were worshipping Rsa. bhadeva the first Tirthankara. There is no doubt that Jainism prevailed even before Vardhamana or Pārswanātha. The Yajurveda mentions the names of three Tirthankaras-Rsabha, Ajitanātha and Aristanemi." ---Indian Philosophy, Vol. I, p. 287. ६. Historical Gleaning's p. 78. v. “It is seldom that Jainas and Brahmanas agree that I do not 800, how we can refuse them credit in this instance, where they do so." -Kalpasutra, intro. p. XVI.
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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