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________________ और उसका प्रसार प्राऐतिहासिक काल में जैनधर्म । का भी यही मत है । उनका समय प्राङ् - ऐतिहासिक काल है - अतः जैनधर्म स्वतः प्राङ्ऐतिहासिक काल का सिद्ध होता है । बौद्ध ग्रंथो में भी ऋषभदेव को ही जैनधर्म का संस्थापक लिखा है' । ' मञ्जुश्री मूलकल्प' में भारतीय इतिहास का विवरण मिलता है। उसमें भारत के आदिकालीन राजाओं में दुन्धमार, कन्दर्प और प्रजापति के पश्चात् नाभि, ऋषभ और भरत का होना लिखा है । ऋषभ हैमवतगिरि से सिद्ध हुए जैनधर्म के आप्त पुरुष थे, यह भी लिखा है । इस प्रकार बौद्ध साक्षी भी ऋषभदेवजी और जैनधर्म को प्राइ - ऐतिहासिक काल का सिद्ध करते हैं । पुरातत्त्व भी इसी मत का समर्थन करता है । खंडगिरि - उदयगिरि (उड़ीसा) में भ० महावीर के समय तक के मंदिर और गुफायें हैं; जिनमें तीर्थङ्कर ऋषभ की मूर्तियां मिलती हैं । मथुरा के कंकालीटीला से भी कुशनकालीन ऋषभमूर्तियां मिलीं हैं । इनसे सिद्ध है कि उस समय के लोगों में ऋषभदेव की पूजा प्रचलित थी और वह उनसे बहुत पहले हो चुके थे । सर्वोपरि मोहनजोदड़ो की मुद्राओं से भी ऋषभ पूजा का प्रचलन आज से ५००० वर्षों पहले प्रमाणित होता है । उन पर ऋषभ तीर्थंकर का चिह्न बैल भी मिलता हैं । एक मुद्रा में नेमिनाथकालीन छ मुनियों का दृश्य अङ्कित है । डॉ० रॉय ने मल्लितीर्थङ्कर के जीवन का एक दृश्य एक अन्य मुद्रा पर अङ्कित अनुमानित किया है। उन्होंने जैनों के त्रिशूलचिह्न को १. आर्यदेव, 'सत्शास्त्र ' - न्यायबिन्दु, अ० ३ इत्यादि । २. 'जयोष्णीषस्तथा सिद्धो धुन्धमारे नृपोत्तमे ॥ ३८८ ॥ कन्दर्पस्य तथा राज्ञो विजयोष्णीष कथ्यते । प्रजापतिस्तस्य पुत्रो वैतस्यापि लोचना भुवि ॥ ३८९ ॥ प्रजापतेः सुरो नाभिः तस्यापि ऊर्ण मुच्यति । लाभितो ऋषभ पुत्रो वै सिद्धकर्म - दृढ़व्रतः ॥ ३९० ॥ तस्यापि माणिचरो यक्षः सिद्धो हैमवते गिरौ । ५०७ ऋषभस्य भरतः पुत्रः सोऽपि मन्त्रान् तदा जपेत् ॥ ३९१ ॥ ३. ' कपिलमुर्निनाम ऋषिवरो, निर्मन्थतीर्थंकर ऋषभः निर्ग्रन्थरूपिः । ' -- आर्यमन्जु श्रीमूलकल्पे । ४. डॉ. फिर, केब्स एण्ड टेम्पिल्स ऑव जैन्स, पृ० ४ एवं लोट्स ऑन दी रिमेन्स ओन धौजी एण्ड केन्स ऑफ उदयगिरि, पृ० २ ५. जैनस्तूप एण्ड अदर एण्टीकटीज़ ऑव मथुरा तथा प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० २७९ - २८० ६. मोडर्नरिव्यू अगस्त १९३२, पृ० १५६ - १५९, व इंडियन हिस्टोरीकल क्वाटर्ली, भा० ८, पृ० २७-२९ व १३२ ७, जैन ऐप्टीक्केरी, भा० १४ कि० १ (जुलाई १९४८ : ) पु० ६ - आर्यमज्जु श्रीमूलकल्पे
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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