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________________ ४८२ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैनागम हमने अन्य ग्रन्थों में नहीं देखा हैं और न सुना भी हैं। उपाध्यायजी का यह विवेचन अपूर्व एवं नवीन रीति का है, लेकिन यह कथन पूर्णतः सत्य है इसमें कोई संदेह नहीं है। अध्याय १४ श्लोक ६ से ८ में उपर बतायी हुई बात का पुनः निरूपण है। वे लिखते हैं कि "ज्ञानावरणसंज्ञेयो वातः सिद्धान्तवादिनाम् । पित्तमायुः स्थितेर्वाच्ये नामकर्म कफात्मकम् ॥ ६ ॥ रक्ताधिक्येन पित्तेन मोहप्रकृतयोऽखिलाः । दर्शनावरणं रक्तकफसांकर्यसम्भवम् ॥ ७ ॥ तत्तद्विकारजं वेद्यं गोत्रं पित्तकफात्मकम् । अन्तरायः सन्निपातादेषां विकृतिकारणम् ॥ ८॥" सैद्धान्तिकों के मत अनुसार ज्ञानावरण वात दोष है, आयुष्य स्थिति का नाम पित्त दोष है और नामकर्म कफरूप है । जहाँ जिस में रक्त की आधिक्यता है वहाँ पित्त प्रकृति से सर्व मोहप्रकृतियाँ उदित होती हैं । वात और कफ का संमिश्रितभाव दर्शनावरण है और अनुविकारों से होनेवाली सुख दुःख की अनुभूति वेदनीय है । गोत्रकर्म पित्त-वात-कफरूप है। वात-पित्त-कफ के सन्निपातरूप अंतरायकर्म इन तीनों विकृतियों का कारणभूत बनता है। इसी लीये सभी भावों का निरूपण कर के मैंने उपर बताया है । इसी बाह्य और अंतर हेतु से और प्रयत्न से मन को निराग्रही करने का आत्मार्थी पुरुष को यत्न करना चाहिये। उपर्युक्त कथन में उ. श्री मेघविजयजीने ज्ञानावरणीय आदि कर्म और वात-पित्त-कफ आदि दोषो में जो संबंध स्थापित किया है वह एक अश्रुतपूर्व है। लेकिन गहन चिंतन से उनका यह कथन किसी भी अनुभवी ज्ञानी और आत्मार्थी की कसौटी पर से अभिज्ञ हो जाय ऐसा है । उनकी इस उक्ति से स्पष्ट दिखायी पडता है कि आध्यात्मिक शुद्धि के पारग जिज्ञासु देह को दुश्मन समझें और आरोग्य संयम की आराधना में अनुकूल हो सके ऐसी चर्या ही सावधानी से उनको निर्वाहित करनी चाहिये । स्पष्ट यह है कि वात-पित्त-कफ संभूत विषमता को मिटाना जरूरी है और इस उद्देश के लिये आहारशुद्धि पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। उनके कहने का तात्पर्य ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मा की स्वस्थता मन के आरोग्य पर निर्भर है और वही आरोग्य देह के आरोग्य का कारण है। आठवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में शौच विषयक आदेश करते हुये वे कहते हैं " शौचं च द्रव्यमावाभ्यां यथार्हता स्मृतम् ।। अस्वाध्यायं निगदता दशधौदारिकोद्भवम् ॥ १९॥"
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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