SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 565
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८० श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैमागम ऋग्वेद के प्रत्येक मंत्र के शिर पर मंत्र का ऋषि, छंद आदि बताया है। वैसे ही अर्हद्गीता के प्रारंभ में अर्हद्गीता का ऋषि गौतम है, छंद अनुष्टुप है, देव सर्वज्ञ जिन परमात्मा है । " प्राप्तेऽपि नृभवे यत्नः कार्यः" इत्यादि इस गीता का कीलक है । तदुपरांत जगह-जगह वैदिक मंत्र की तरह वसद्, स्वधा, स्वाहा, आदि मंत्राक्षरों का प्रयोग उपाध्याय श्री मेघविजयजीने किया है। यद्यपि अर्हद गीता श्री मेघविजयजी उपाध्यायने अपने आप की (स्वयं) कल्पना से उद्भावित की है और रची है। इतना होते हुए भी उन्होंने नम्रभाव से अपनी इस रचना का श्री गौतमस्वामी के मुख में प्रश्नरूप में और श्री महावीरस्वामी के मुख में प्रत्युत्तर रूप से आयोजन किया है। जैन परंपरा में कितने ही ऐसे प्राचीन अर्वाचीन ग्रंथकार हो गये हैं जिन्होंने नत्र भाव से अपनी रचना को श्री महावीरस्वामी के मुख से शब्दातीत की है। प्रस्तुत गीता ग्रंथ में श्री मेघविजयजीने उपर्युक्त पूर्व गुरुपरंपरा की पद्धति स्वीकृत की है। उ. श्री मेघविजयजी अपनी इस कृति के बारे में कहते हैं किः" श्रीवीरेण विबोधिता भगवता श्रीगौतमाय स्वयं, सूत्रेण ग्रथितेन्द्रभूतिमुनिना सा द्वादशांग्यां पराम् । अद्वैतामृतवार्षिणी भगवती पत्रिंशदध्यायिनी, मातस्त्वां मनसा दधामि भगवद्गीते ! भवद्वेषिणीम् " ॥१॥ [अ. गीता प. ३] अर्थात्-भगवान महावीर स्वयंने गौतम को छत्तीस अध्याययुक्त और अद्वैतामृत रस को बहानेवाली अर्हद्गीता या भगवद्गीता कही है और श्री इन्द्रभूति मुनिने इसको द्वादशांगी में सूत्ररूप से गुंफित की है। इतना लिखने के बाद उन्होंने गीता को माता कहकर उसका ध्यान किया है । उपर बताये हुए श्लोक के अन्त में बताया है कि इति परसमयमार्गपद्धत्या शास्त्रप्रज्ञाश्रुतदेवदावतारः ॥ इस तरह परमत की पद्धति के अनुसार शास्त्रप्रज्ञारूप श्रुतदेवता का आविर्भाव हुआ समझना चाहिए। २. ॐ अस्य श्रीअर्हद्गीताख्यपरमागमबीजमंत्ररूपस्य सकलशास्त्ररहस्यभूतस्य श्रीगौतमऋषिः, अनुष्टुप्छंदः, श्रीसर्वज्ञो जिनः परमात्मा देवता, प्राप्तेऽपि नृभवे यत्नः कार्यः प्राणभृता तथा, इति बीजम् , येनात्माऽऽत्मन्यवस्थाता तद् वैराग्यं प्रशस्यते इति शक्तिः, अमुक्तोऽपि, क्रमान्मुक्तो निश्चयात् स्यादनिच्छया इति कीलकम् ॥ [अहंदगीता. पन 1
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy