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________________ ४७२ और जैनाचार्य पू. उपाध्याय श्री मेघविजयजी गुम्फिता अहंद्गीता । जनता तक अपना धर्मोपदेश पहुँचा सके हैं। इसीका साक्ष्य देखना हो तो · वसुदेवहिंडी' नामक ग्रंथ को देखें। इसके अतिरिक्त ऐसे अनुकरणों को समझाने के लिये आचार्य श्री हरिभद्रसूरि आदि के स्वरचित धर्मबिन्दु, ललितविस्तरा आदि ग्रंथों तथा मेघदूत के अनुकरणरूप और माघ. काव्य आदि की पादपूर्ति जैसे ग्रंथों तथा अन्य जैन कई कवियों द्वारा रचित कई-एक ग्रंथ साक्ष्य में प्रस्तुतं किये जा सकते हैं। उपाध्याय श्री मेधविजयजी भी इसी तरह की पूर्व गुरुपरंपरागत अभिरुचि से प्रार आत्मशोधन दृष्टि से अहंद्गीता रचने को उत्तेजित होते हैं। उन्होंने भी अपनी कृति का अर्हद्गीता या-तत्त्वगीता या भगवद्गीता नाम दिया है। अर्हद्गीता में छत्तीस अध्याय हैं । यह श्रीकृष्ण की गीता से दुगुनी है । श्रीकृष्ण की गीता में 'श्री भगवान् उवाच ' या • श्री अर्जुन उवाच ' ऐसे वाक्य दिये हैं। इस ग्रंथ में भी 'श्री भगवान् उवाच' और 'श्री अर्जुन के ' स्थान पर 'श्री गौतम उवाच' ऐसे वाक्य हरएक अध्याय के प्रारम्भ में ही प्रस्तुत हैं । गीता में श्रीकृष्ण के लिये 'भगवान् '-शब्द प्रयुक्त किया गया है । अहंद्गीता में श्री महावीरस्वामी के लिये 'भगवान् ' शब्द प्रयुक्त किया गया है। श्री कृष्ण की गीता में पृच्छक ' अर्जुन' श्री कृष्ण का परममित्र है। प्रस्तुत गीता में श्री 'इन्द्रभूति-गौतम' श्री महावीरस्वामी के मुख्य और प्रिय शिष्य हैं । इन छत्तीस अध्यायों में ज्ञानसाधन तथा क्रियासाधन ऐसे आध्यात्मिक विषयों की चर्चा है । चर्चा में समय प्रसंगोचित भिन्न-भिन्न दर्शनों का समन्वय और अधिकतर वेदान्त का समन्वय तथा — ॐ नमः सिद्धः' इस उक्ति की नाना रूप से उद्बोधना दी गई है। इससे आगे बढ़ कर ज्योतिष, सामुद्रिक, तिथिविचार, आयुर्वेदिकविचार और नयों का निरूपण आदि विविध विषयों की चर्चा इसी गीता में की है । इन सब विषयों का विस्तृत परिचय न देते हुए संक्षेप में ही ग्रंथ की मुख्य-मुख्य विशेषता और इनमें निरूपित बातें ही मुख्यतया यहाँ बताने की धारणा है। १ देखियें 'वसुदेवहिंडी' मध्यमखंड प्रथमपत्र : उनमें जो उल्लेख हैं उनका सारांश यही है कि नलराजा, नहुषराजा, राम, रावण, जनमेजय, कौरपांडवों आदि की कथाओं में लोग प्रीति-श्रद्धा रखते हैं । प्राकृत धर्मकथाओं को सुन कर भी लोग उनमें . अभिरुचि नहीं बताते हैं । अतः रसिक लोगों के लिये शृंगारकथाशैली के अवलम्बन से धर्म को समझाने की बुद्धि से शृंगारप्रधान कथाएं लिखी जाती हैं । कामकथा में रसिक लोग पूछते हैं कि उत्तम कामभोग की केत प्राप्ति कर शके ? उनको प्रत्युत्तर शृंगारप्रधान शैली में ही दिया जाता है। और वह यही है कि-कसल चारित्र्यके आचरण से उत्तम कामभोग उपलब्ध कर सकते हैं।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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