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________________ ४६५ और जैनाचार्य वृत्तिकार अभयदेवसूरि । तक का विचार किया। प्रभावक चरित्रकारने लिखा है कि उनको स्वप्न में नागराजने आकर कहा कि थंभण गांव के पास शेढ़ी नदी के किनारे दबी हुई प्रतिमा निकाल कर तीर्थ की स्थापना करो। नागराज के अपनी जिहाद्वारा उनके रोग को चूसने का उन्हें आभास हुआ । हम तो उस बात को उनकी संकल्पशक्ति का ही परिणाम मानते हैं जो स्वप्नरूप में प्रकट हुई हो । वे कमजोर हालत में ही थंभण ग्राम की ओर जाने को तैयार हुए। उनके साथ अनेक श्रावक और साधु थे। वहाँ जाकर उनको स्वप्न में जिस जगह को बताया गया था वहां खुदवाने पर भव्य प्रतिमा दिखाई दी। प्रतिमा के दर्शन करते ही 'जय तिहुअणवरकप्परूक्ख' इस स्तोत्र की रचना स्वाभाविक ही भक्ति के आवेश में हुई। धीरे धीरे उनकी बीमारी दूर हुई और वे स्वस्थ हुए । थंभण पार्श्वनाथ तीर्थ की स्थापना उन्हीं के द्वारा हुई। आज जो जैन साहित्य और आगम जिस रूप में पाये जाते हैं, उनको उस रूप में रखने में अभयदेवसूरि का बहुत बड़ा हिस्सा है । उन्होंने जैन आगमों पर वृत्तियां लिख कर तथा उचित संशोधन का कार्य कर संघ पर बहुत उपकार किए हैं। उनका कार्य उस समय तो महत्त्वपूर्ण था ही, पर बाद की पीढियों के लिए भी उसका बड़ा महत्व है। इस लिए उनकी गणना उपाध्याय विनयविजयजीने युगपुरुषों में की हैं सो यथार्थ है। जैनदर्शन साहित्य तथा आचार जो आज बहुत कुछ मूल स्थिति में पाया जाता है, उसको मूल तत्त्वों के निकट रखने में अभयदेवसूरिजी का कार्य बहुत कुछ कारणभूत है । उन्होंने स्थानांग, समवायांग, ज्ञाता, भगवति सूत्र के अतिरिक्त पंचाशक सूत्र पर, जिसकी रचना आचार्य हरिभद्रसूरिने की थी, वृत्ति की रचना की थी जिसमें ७४८० श्लोक थे। उनका कार्यक्षेत्र अधिकतर पाटण ही रहा और कहा जाता है कि देहावसान भी वहीं पर हुआ । पर कुछ लोग कपडवणज में पादुका होने से देहत्याग भी वहीं पर हुआ मानते हैं । भले ही देहत्याग कहीं भी हुआ हो, पर कपडवणज भी उनके प्रमुख कार्यक्षेत्रों में से एक था। हम देखते हैं, जिन में निराग्रहवृत्ति और व्यापकता होती हैं, वे ही ऐसे महत्वपूर्ण और स्थायी स्वरूप के काम कर पाते हैं। और यह बात तभी आती है, जब अध्ययन गहरा तथा व्यापक हो। ऐसे ज्ञानी अपने संप्रदाय या धर्म का पालन निष्ठा के साथ करते हुए भी दूसरों के प्रति उदार होते हैं और यही सच्चे ज्ञानी की निशानी है। ऐसे महान् पुरुष हमारे यहाँ होते रहे हैं और आज भी मौजूद हैं। तभी हम में सहिष्णुता आज भी पाई जाती है । अभयदेवसूरि ऐसे महापुरुषों में से थे जिन में व्यापकता, ज्ञान और चरित्र का सुमेल था और जिन्होंने निराग्रही वृत्ति रख कर महान् कार्य किया ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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