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________________ देवेन्द्रसूरिकृत नव्य-कर्मग्रन्थ डॉ. मोहनलाल महेता, एम. ए., पी एच. डी. आचार्य देवेन्द्रसूरि (विक्रम की १३-१४ वीं शती)ने जिन पांच कर्मग्रंथों की रचना की है उनका आधार शिवशर्मसूरि, चन्द्रर्षिमहत्तर आदि प्राचीन आचार्यों द्वारा बनाये गये प्राचीन कर्मग्रंथ हैं। देवेन्द्रसूरिने अपने कर्मग्रन्थों में केवल प्राचीन कर्मग्रंथों का भावार्थ अथवा सार ही नहीं दिया है; अपितु नाम, विषय, वर्णनक्रम आदि बातें भी उसी रूप में रखी हैं । कहीं कहीं नवीन विषयों का भी समावेश किया है। प्राचीन षट् कर्मग्रंथों में से पांच कर्मग्रंथों के आधार पर आचार्य देवेन्द्रसूरिने जिन पांच कर्मग्रंथों की रचना की है वे नव्य-कर्मग्रंथ कहे जाते हैं । इन कर्मग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं: कर्मविपाक, कर्मस्तव, बन्ध-स्वामित्व, षडशीति और शतक । ये पांचों कर्मग्रंथ क्रमशः प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पंचम कर्मग्रंथ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं । उपर्युक्त पांच नामों में से प्रथम तीन नाम विषय को दृष्टि में रखते हुए रखे गये हैं, जबकि अन्तिम दो नाम गाथा संख्या को लक्ष्य में रख कर रखे गये हैं। इन पांचों कर्मग्रंथों की भाषा प्राकृत है । जिस छंद में इनकी रचना हुई है उसका नाम आर्या है। प्रस्तुत निबन्ध में उपर्युक्त पांच कर्मग्रंथों का संक्षिप्त परिचय दिया जायगा । कर्मविपाक __ ग्रंथकार ने प्रस्तुत ग्रंथ के लिए आदि एवं अन्त में कर्मविपाक' (कम्मविवाग) नाम का प्रयोग किया है। कर्मविपाक का विषय सामान्यतया कर्मतत्त्व होते हुए भी इसमें कर्मसम्बन्धी अन्य बातों पर विशेष विचार न किया जा कर उसके प्रकृति-धर्म पर ही प्रधान तया विचार किया गया है । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो प्रस्तुत कर्मग्रंथ में कर्म की सम्पूर्ण प्रकृतियों के विपाक-परिपाक फल पर ही मुख्यतया वर्णन किया गया है। इसी दृष्टि से इसका 'कर्मविपाक' नाम भी सार्थक है । ग्रंथ के प्रारंभ में आचार्य ने बताया हैं कि कर्मबन्ध सहेतुक अर्थात् सकारण है। इसके बाद कर्म के स्वरूप का परिचय देने के लिए ग्रंथकार ने कर्म की चार दृष्टियों से विचार किया है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग अथवा रस एवं प्रदेश । प्रकृति के मुख्यतया आठ भेद हैं : ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इन आठ मूल प्रकृतियों के विविध उत्तरभेद होते हैं जिनकी संख्या १५८ तक होती हैं । इन मेदों का
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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