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________________ ४६४ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैमागम हुआ कि शास्त्रों या आगमों की योग्य व्याख्या ही आचार की विकृति दूर करने का ठीक उपाय है। इस लिए आचार की विकृति दूर करने के लिए शास्त्रों की शुद्ध व्याख्याएं होनी चाहिए। अभयदेवसूरि अपने मन में शास्त्रों की व्याख्याएं ठीक करने का संकल्प करके उसकी तैयारी में लगे । साधनों की सुविधा की दृष्टि से पाटण अनुकूल स्थान था, क्यों कि वहां आगम की भिन्न-भिन्न वाचनाएं मिलने में सुविधा थी और चैत्यवासी संपदाय के विद्वानों का सहयोग वहां प्राप्त हो सकता था। वे चार साल तक अंतर-बाह्य तैयारी करते रहे और विक्रम संवत ११३० सें उन्होंने अंगसूत्रों पर वृत्तियां लिखने का काम शुरू किया । अपने काम की गंभीरता और उसका महत्व जान कर उन्होंने इस काम के लिए प्रतिकूल आचार पालनेवाले चैत्यवासी संप्रदाय के आचार्य द्रोणाचार्य का सहयोग लिया। इसमें उनकी उदारता तथा व्यापकता और गुणग्राह्यता के दर्शन होते हैं । वे स्वयं शुद्ध आचार तथा कठोर संयम के पक्षपाती थे। लेकिन शिथिलाचारवालों के प्रति उनमें उदारता थी, जिससे वे इस महान् कार्य में द्रोणाचार्य का सहयोग प्राप्त कर कार्य को अधिक से अधिक प्रामाणिक और निर्दोष कर सके। इस कार्य में द्रोणाचार्य की विद्वत्ता और बहुश्रुतता का साथ न मिलता तो वे केवल संवेगी संप्रदायके साधुओं के सहकार्य से इस महान् तथा उपयोगी कार्य को स्यात ही इतना कर पाते या नहीं, कहना कठिन है। क्यों कि संवेगियों में शुद्ध आचार और कठोर संयमवाले तो बहुत थे, पर विद्वानों की कमी थी। ____ अभयदेवसूरि की तप और संयम में विशेष श्रद्धा थी। उन्होंने वृत्तियों का काम शुरू करते समय तपसे प्रारंभ किया और काम पूरा होने तक बराबर आयंबिल तप करते रहे । यह कार्य संवत ११२८(१) तक चलता रहा। इस काल में करीब ६०००० साठ हजार श्लोकों की उन्होंने रचना की। वे उपलब्ध पाठों को देख कर शुद्ध करते, फिर उस पर वृत्ति रचते और द्रोणाचार्य को बतला कर उनसे प्रामाणिकता की मोहर लगवाते। पाठों को शुद्ध करने का काम कितना कठिन तथा परिश्रम का है यह तो वे ग्रंथों का प्रामाणिक संपादन करनेवाले ही जान सकते हैं। आज साधनों की सुगमता और वैपुल्य होने पर भी एक एक ग्रंथ के संपादन में कई वर्ष बीत जाते हैं। फिर उन दिनों, जब साधनों की कमी थी, आगमों के अनेक पाठान्तर और वे भी अव्यवस्थित हों, तब कितना अधिक परिश्रम करना पड़ा होगा और वह भी लूखा-सूखा खा कर। इस तप और परिश्रम का शरीर पर परिणाम होना स्वाभाविक था । अभयदेवसूरि को रक्तविकार हुआ। जो विरोधी विचार रखते थे, उन्होंने यह बात फैलाई की आगमों के गलत अर्थ करने का यह परिणाम है और इस लिए कोढ़ की बीमारी हुई। अभयदेवसूरि को इस अपवाद से बहुत दुःख हुआ। उन्होंने अनशन कर प्राणत्याग करने
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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