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________________ और जैनाचार्य वृत्तिकार अभयदेवरि । मुनियों में आगम के ज्ञाता और शास्त्रियज्ञान के जानकार विद्वान् थे और शास्त्र भी अधिकतर उन्हीं के पास था, क्योंकि शास्त्रभंडारों की व्यवस्था करना उन्हीं के आधीन थी, पर उनका ऐसा करना महावीर के उपदेशों से प्रतिकूल था और निवृत्तिपरायण जैनतत्वज्ञान से मेल नहीं खाता था । इसी लिए हरिभद्र जैसे आचार्यों ने इस संप्रदाय के खिलाफ कठोर टीका की थी। संवेगी संप्रदाय के मुनि आचारपालन में अधिक ध्यान देते थे, किन्तु प्रभाव तो चैत्यवासियों का ही उन दिनों में अधिक था। यहां तक की जैन संस्कृति का केन्द्र पाटण जो उन दिनों गुजरात की राजधानी था, उसमें चैत्यवासियों की इजाजतके बिना प्रवेश करना भी संवेगी मुनियों के लिए कठिन था। संवेगी परंपरा में कभी-कभी चैत्यवासी मुनि शामिल हो जाते थे, जो विद्वान् तथा आगमों के ज्ञाता होते थे। अभयदेवसूरि जिस परंपरा में दीक्षित हुए थे, उनके गुरु के गुरु वर्धमानसूरि पहले चैत्यवासी थे, और वे बाद में आगमों के चिंतन तथा वैराग्य उत्पन्न होने के कारण संवेगी बन गए थे। चूंकि वे विद्याप्रेमी तथा विद्वान् थे, इसलिए उनके शिष्य भी बहुश्रुत तथा विद्वान् थे। शुद्ध क्रियावाले संयमी श्रमणों की परंपरा बढ़ाने की दृष्टि से उन्होंने अपने शिष्य जिनेश्वरसूरि तथा बुद्धिसागरजी को पाटण भेजा था, जिन्होंने अपनी विद्वता के बल पर राजपुरोहित के यहां बड़ी कठनाई से स्थान पाया था और अपना काम शुरू किया और सफलता पाई। जिनेश्वरसूरि अभयदेवसूरि के गुरु थे। जिनेश्वरसूरि जब पाटण से विहार कर जालोर की ओर गए तो वहां से उनका विहार धारानगरी की ओर हुआ। उस जमाने में धारानगरी विद्या तथा संस्कृति की केन्द्र थी। वहां महीधर श्रेष्ठि रहते थे जिनकी भार्या का नाम धनदेवी था और पुत्र का नाम अभयकुमार था। जिनदेवसूरि के संपर्क से अभय. कुमार में वैराग्य जगा और साधु बनने के संकल्प को मातापिता से कह कर उसने आज्ञा प्राप्त की। आचार्यने योग्य पात्र, संकल्प की दृढ़ता और वैराग्यभाव देख कर वि. सं. ११०४ में :उसको दीक्षा दी और अभयदेव मुनि नाम रखा । मुनि का जन्म विक्रम संवत १०८८ में हुआ था। अभयदेव का वैराग्य आत्मकल्याण के लिये ही था, अतः वे कठोर तप, संयम और ज्ञान की साधना करने लगे। जैन दर्शन ही नहीं, पर वेदोपनिषदों का भी अध्ययन किया । उन्होंने दीक्षा ले कर १० साल तक शास्त्र-अध्ययन किया। २६ साल की उम्र में वे शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता हो गए थे। उनका संयम, उनकी योग्यता और विद्वता देख कर उनके गुरुने उनको आचार्य पदवी दी और वे अभयदेवरि कहलाने लगे। शास्त्रों के अध्ययन तथा तत्कालीन समाज की स्थिति के अवलोकन का परिणाम यह
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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